🌹मां हम और दिखावा 🌹 आदरणीय भाइयों और बहनों प्रणाम🌺🌺 जिनको दो मिनट का समय मां के लिए लिखे इस लेख को पढ़ने के लिए नहीं है वो क्षमा करें यह लेख उनके लिए है भी नहीं,,,, इस वर्ष सरसों की फसल अच्छी हुई है, एक और भी फसल है जो प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी अच्छी हुई है और वह है "मां के कदमों के नीचे जन्नत की फसल"। यह फसल खेत में नहीं सोशल मीडिया और अनेक कार्यक्रमों की धरती पर पैदाकर एक हफ्ते के अंदर पूरी दुनियां में बिखेरकर अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दी जाती है। जब मां शब्द का आधुनिकीकरण हुआ और वह मां माई अम्मा बेबे अम्मीजान आई मासा महतारी के बाद मदर और मॉम तक पहुंची तब मदर्स डे का अभ्युदय हुआ, मदर्स डे उनका मनाना जायज है जिनकी पांचवीं मॉम सातवें डैड के साथ रह रही हो और जो अपने असली पेरेंट्स का चेहरा तक नहीं याद कर पा रहे हैं, जिनकी परवरिस वहां की राज्य सरकारें करती हैं । भारत में जो मां स्वसन क्रिया के पूरक रेचक और कुंभक तीनों में बसी हो, जो किसी पल भुलाए से भी न भुलाई जा सकती हो उसके लिए कौन सा मदर्स डे भाई। कुछ यक्ष प्रश्न हैं जिन पर विचार करना आवश्यक है,, ये जो मदर्स डे का सालाना पर्व हम मनाते हैं अगर सारी माएं इतनी सुखी संतुष्ट और खुशहाल हैं तो वृद्धाश्रम में किसकी माएं हैं,एक थैली दूध हाथ में पकड़े सड़क पार करने के लिए जो वृद्धा सड़क के किनारे खड़ी रहती है वो किसकी मां है, जिसके कपड़े वाशिंग मशीन में सबके बाद धोए जाते हैं, जो अपने नाती पोतों को दूर से देख तो सकती है मगर छू नहीं सकती है, जिसको ठंडी रोटी शाम को पोपले मुंह से चुलबुलाकर पानी की घूंट से निगलना पड़ता है, जो बाहर जा नहीं सकती है और परिवार के किसी भी सदस्य के पास चौबीस घंटे में एक बार भी पांच दस मिनट भी उसके पास बैठने के लिए नहीं होता है, जो सुनी आंखों से दरो दीवार को देखकर अपना दिन बिताती है, जिसके मन की बात सुनने वाला दुनियां में कोई न हो, मेहमान आने पर जो अपने कमरे में बंद हो जाती है या कर दी जाती है, जिसकी टूटी ऐनक महीनों तक मरम्मत के इंतजार में रखी रहती है, पांच सात दशक जीने के बाद भी जो आज आऊट डेटेड करार कर दी जाती हो, वो किसकी मां हैं, हैं तो हमारी ही मां वो । शहर के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी गांव वालों को गंवार कहते हैं पर ध्यान दीजिएगा गांव में स्कूल अस्पताल बेशक कम हों पर दावा है वृद्धाश्रम एक भी नहीं है, गरीब से गरीब गांव वाला भी अपनी मां को वृद्धाश्रम में कतई नहीं छोड़ सकता है। शहर में कुछ घर सब प्रकार से संपन्न हैं नौकर चाकर की कोई कमी नहीं है, घर में सब कुछ है पर मां वृद्धाश्रम में ही है। जिस मां को उसके जीते जी हम दो मिनट का समय न दे सके मरने के बाद उसके नाम का नवरात्रों में किया गया भंडारा किस काम का, जब हम जन्मदात्री को न संतुष्ट कर सके तो जगतजन्नी कैसे प्रसन्न होंगी, हमें सोचना पड़ेगा। कवि सम्मेलन और शायरों के बीच मां पर कविताएं सुनकर भावुक होकर दो घड़ियाली आंसू बहाकर मां के प्रति हमारे कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती है, परिवार में बहुएं ही मां के प्रति हमेशा गलत नहीं होती हैं मां के प्रति जैसी दृष्टि हमारी होगी बहुएं भी उसी दृष्टि से देखेंगी। हमें मां के प्रति अपने विचारों का दोगलापन दूर करना होगा, जीते जी मां पर स्नेह श्रद्धा रखिए मरने के बाद श्राद्ध करो या न करो आपकी इच्छा। जितनी भी सेवा हो सकती है मां के जीते जी हो जाए वही उत्तम है मरने के बाद किए गए काम या तो समाज को दिखाने के लिए होते हैं या आत्म संतुष्टि के लिए, जीते जी का आत्मीयता से दिया गया एक गिलास पानी बाद के वृषोत्सर्ग से भला है, का बरखा जब कृषी सुखाने। बंधुओं इस लेख द्वारा मेरा मंतव्य किसी की आलोचना करना या दुःख पहुंचाना कतई नहीं है। वे परम शौभाग्यशाली हैं जिनके सिर पर मां का हाथ वरद मुद्रा में बना हुआ है। पहिचानिये मां को,उसकी शक्ति प्रेम त्याग दया और शिक्षा को, अपने प्रथम गुरु का वर्तमान नहीं अतीत देखिए उसने हमारे लिए जो कुछ भी किया होगा अपनी सामर्थ्य से ज्यादा ही किया होगा ।।।।। श्रृष्टि की समस्त मांओं को प्रणाम 🙏🙏🌹🌹 के के द्विवेदी
पारा चालीस पार हो गया है , चिलचिलाती धूप में आम के पेड़ो के नीचे बैठकर उनकी रखवाली करता गाँव न जाने कब अंबाला लुधियाना में कंकरीट ढोने लगा !इधर गाँव में लगे आम के बिरछों ने या तो आत्महत्या कर ली या उनकी हत्या कर दी गयी । पारा चालीस पार होते ही बचपन में घटी न जाने कितनी शादियाँ याद आने लगती है . . . उन दिनों तराई में नवंबर दिसम्बर में शादियाँ नहीं होती थीं , अगहन के बियाह को कम शुभ माना जाता था ऐसा क्यों था यह मुझे नहीं पता , हाँ कोई कोई यह अवश्य कहता मिल जाता / जाती कि अगहन में जानकी जू का बियाह हुआ था तो जीवन भर कोई सुख नहीं मिला । पारा चालीस पार होते ही याद आते हैं जनेऊ संस्कारों के कुछ दृश्य ! सुबह सुबह ही चढ़ी धूप में फूस के माड़व से छनते घाम के बीच बरुआ खाते हुये बच्चे और उनके साथ अमलोरे वाली बुआ का गाना कि ' को यहु मयरु गोड़ावै औ धान बोवावै / को यहु रींधै भातु तौ बरुआ जेवावैं ( इस मरुथल की जुताई करके धान किसने बोये , और किसने चावल पका कर नन्हें विप्रों को भोजन कराया ) बच्चों से छुपाकर भूसे में धरी हुयी बरफ की कंकड़ी भर पा जाने का जो मजा था वह फ्रीजर से बटर स्काच निकाल कर खाने में कहाँ ! मन होता है कि उतरते बैसाख के किसी दिन अँबिया का गलका और पूरी खाने का मगर आज की शादियों को पनीर मशरूम से फुरसत मिले तब न ! चालीस पार पारे में अपने तेरह चौदह साल के पोते की साइकिल पर सवार होकर आयीं रमपुरवा वाली फूफू से न हाल न चाल बस आते चाची बोल पड़ीं ' तुमका अब मौका मिला जिज्जी ' फूफू - का करी दुलहिन घर का बहुत जंजाल मूड़े है अम्मा - जीजा घरी भर तौ छोड़त नाय ! कैसे आवैं माहौल खिलखिलाहट से भर गया और इसी के साथ घर की कोई नयी बहुरिया थरिया लोटा लेकर पांव धोने लगी दूसरी आकर बुँदिया और पानी रख गयी ! चालीस पार पारे के बीच मंडप के नीचे बैठे हुये आधी धोती ओढ़े हुये फूफा और उनके बडे भाई , बहिन के अजिया ससुर और चार छः और रिश्तेदारियों के बुढ़वे ! और उनके बीच हाथ में एक पंखा लेकर माछी उड़ाती दादी ! चालीस पार पारे के बीच दुआर पर बजता देसी बैण्ड ' रे बाबा तुम्से मिल्ने को दिल करता है ' और उनके बीच मैली घंघरिया पहने नचनिया ! थोड़ी देर बाद कोई आता है और बाबा की लिखी किसी किताब की पांडुलिपि के पन्ने फाड़ कर उन पर बुँदिया दे जाता है . . गाना फिर बजने लगता है ' मैंने प्यार तुम्ही से किया है ' . . दुआर पर लगे अमरूत के पेड़ के नीचे दो तीन खटिया और उन पर बिछे गलीचे ! रूह आफजा का शरबत चालीस पार पारे के बीच तिरलोकी का जनेऊ ! तब लगता ही नहीं था कि दुनिया का एक हिस्सा एअरकंडीशनर की खोज कर चुका है और इस धूप से निजात पाया जा सकता है ! दरअसल जहाँ से मुक्ति की संभावना होती है वही बंधन लगता है और जहाँ से मुक्ति की संभावना नहीं उसे कुछ भी कह लो ! भाग्य प्रकृति ज़िन्दगी !