आस्तिकता और नास्तिकता का सवाल आस्तिकता और नास्तिकता का सवाल आज का नहीं है , हजारों हजारों साल पुराना है। आस्तिकता और नास्तिकता दो जीवन शैलियों के नाम हैं। मैं अपने को आस्तिक कहूँ या नास्तिक जो भी कहूँ, इससे क्या अंतर पड़ता है? असली बात आचरण-व्यवहार की है, समष्टिहित की है। यदि मेरा आचरण-व्यवहार स्वार्थमय है , यदि मन में वही मोह-छोह और क्षुद्रवासनाएं हैं, तो इससे अन्तर ही क्या पड़ता है कि मैं अपने को आस्तिक कहता हूं अथवा नास्तिक कहता हूं ? यह प्रश्न निरर्थक है कि आप ईश्वर को मानते हैं या नहीं मानते हैं । महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आप समष्टि के लिए जी रहे हैं या अपने स्वार्थ के लिए ही सब कुछ किया है? आपने समष्टिहित की जिम्मेदारी के पद पर आकर भी अपने स्वार्थ की साधना ही की है या समष्टिहित का साधन किया है ? आपने रोटी अकेले ही खाई है या दूसरों को बांट करके खाई है? यही धर्म है और विज्ञान भी यही है।