आदि गुरु शंकराचार्य और जीवन दर्शन | Life and Journey of Jagatguru Shree Adi Shankaracharya
ये कहानी है उस छोटे से बालक की जो एक दिन एक ब्राह्मण के घर भिक्षा मांगने जाता है,सयोंग वंश वह परिवार बहुत ग़रीब था, जिस कारण उस ब्राह्मण की पत्नी एक आंवला ला कर उस बालक के हाथ पर रख देती है । उस परिवार की विफलता देख कर उस छोटे बालक का दिल द्रवित हो उठता है । वह मन ही मन ईश्वर से प्राथना करता है, की इस परिवार की विपत्ति दूर कर दें ,
उसके बाद वह बालक" शंकर" अगले घर भिक्षा मांगने जाता है, वह एक धनी परिवार था । वह परिवार खुश हो जाता है, और सोचता है की किस जन्म के पुण्य उदय हो गए जो एक ब्रह्मचारी उनके द्वार भिक्षा मांगने खड़ा है।
लेकिन शंकर ने “भिक्षां देहि” की पुकार नहीं लगाई , लेकिन वह व्यक्ति भिक्षा ले कर द्वार पर आ पंहुचा शंकर ने भिक्षा के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाये बल्कि पीछे खींच लिए ।
अमीर व्यक्ति के पूछने पर बालक शंकर ने कहा, जो व्यक्ति अपने समाज को अपना नहीं समझता जिसके दिल में लोगों के लिए प्रेम नहीं, ममता नहीं ,उसका अन्न खा कर क्या धर्म वृत्ति उत्पन्न हो सकेगी ।
यह छोटा बालक और कोई नहीं बच्चों महान सन्यासी आदि शंकर चार्य थे |
आज हम आपके लिए आदि शंकराचार्य - की जीवन गाथा लेकर आये हैं। जिन्होंने सनातन धर्म का पुनर्गठन और पुनरुद्धार किया ।
आदि शंकराचार्य (Adi shankaracharya) का जन्म 788 ई0 में केरल के कालड़ी नामक ग्राम में निम्बूदरीपाद ब्राम्हण के घर हुआ था । इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था । बहुत समय तक संतान न होने के कारण इनके माता पिता ने भगवान शिव की घोर आराधना की ।
फलस्वरूप भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन दिए और पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया । लेकिन साथ ही एक शर्त भी रखी कि या तो दीर्घायु किन्तु साधारण पुत्र ले लो । अथवा अल्पायु किन्तु महाज्ञानी पुत्र का चयन कर लो । इनके पिता ने दूसरा विकल्प चुना ।
शंकराचार्य साधारण सन्यासी नहीं थे,उन्होंने निरंतर नियमों को तोडा जो जीवन के कर्म पथ के बाधक थे,
यहाँ पर एक और विषय पर चर्चा करना आवश्यक है, की एक सन्यासी को दाहकर्म की आज्ञा नहीं होती, लेकिन शंकरचार्य ने सन्यास ग्रहण करने के पूर्व अपनी माता को दिए वचन को निभाने इस नियम को भी तोडा अपने घर के आंगन में ही माँ की चिता का अंतिम संस्कार किया ।
कई जगह आपने कहा है, की अपने बनाये हुए नियमों के हम स्वामी हैं, दास नहीं हैं ।
सामाजिक कुरीतियों का विरोध
आदि शंकराचार्य महान दार्शनिक, परम ज्ञानी सन्त के साथ साथ समाजसुधारक भी थे। तत्कालीन समाज में प्रचलित कई कुरीतियों का उन्होंने प्रबल विरोध भी किया। जिसमें जाति प्रथा, छुआछूत और पशुबलि प्रथा मुख्य हैं।
चार पीठों की स्थापना
सनातन धर्म को प्रत्येक कालखण्ड में निर्देशित, निरूपित एवं अनुशासित करने हेतु आदि शंकराचार्य ने भारतवर्ष के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना की। दक्षिण में रामेश्वरम (तमिलनाडु) में श्रृंगेरी का शारदापीठ, उत्तर में बद्रिकाश्रम (उत्तराखंड) में ज्योतिर्पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में गोवर्धनपीठ तथा पश्चिम में द्वारिकापुरी (गुजरात) में कालीमठ । ये धर्म पीठ भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने का भी कार्य करते हैं।
आदि शंकराचार्य की शिक्षाएं / सिद्धान्त
उन्होंने प्रमुखतः अद्वैतवाद का प्रचार प्रसार किया। तथापि मूर्तिपूजा को भी उन्होंने ब्रम्ह प्राप्ति का एक मार्ग माना। उनका मुख्य कथन था कि “ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या” अर्थात ईश्वर ही सत्य है। यह संसार एक प्रपंच या झूठ है ।
शंकराचार्य की प्रमुख रचनाएँ
आदिगुरू शंकराचार्य की प्रमुख रचनाओं में शीमद्भगवतगीता, ब्रम्हसूत्र एवं उपनिषदों पर भाष्य हैं । जो इन्होंने ज्योतिर्मठ की व्यास गुफा में बैठकर लिखे हैं । इन्हें प्रस्थानत्रयी के नाम से भी जाता है ।
ये ग्रंथ विश्व में हिन्दू दर्शन के महानतम ग्रंथ हैं । इसके अतिरिक्त आदिगुरु ने अनेक छोटे बड़े ग्रंथों एवं स्तोत्रों की रचना की ।
आदि शंकराचार्य के शिष्य कौन थे ?
शंकराचार्य के चार शिष्य :
1. पद्मपाद
2. हस्तामलक
3. मंडन मिश्र
4. तोटक
इस तरह आदि गुरु शंकराचार्य के सिद्धांतों और प्रयासों के परिणाम स्वरूप भारत वर्ष एक ओर तो रूढ़िवादी कर्मकांड और दूसरी ओर नास्तिक जड़वाद के गर्त में गिरने से बच गया I
और आदि शंकरचार्य जी मात्र बत्तीस वर्ष की आयु में 477 ईस्वी पूर्व निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्म लोक चले गए .
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30 дек 2022