कर्मक्षेत्र क्या है?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को निराशा से उबारने के लिए उनकी शंकाओं का प्रभावी समाधान किया। इसी के अंतर्गत उन्होंने जीव के कर्म क्षेत्र शरीर का निर्माण किन-किन तत्वों से होता है, इसके बारे में बताया है। उनके अनुसार जल, अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी, सत, रज, तम, अहंकार, बुद्धि, इच्छा, द्वेष, सुख-दुख और धैर्य इत्यादि के द्वारा शरीर रूपी कर्म क्षेत्र का निर्माण होता है। इस प्रकार तैयार शरीर में जीव के साथ-साथ ईश्वर के अंश के रूप में आत्मा भी निवास करता है। जीव अपने विवेक के अनुसार कर्म करने के लिए स्वतंत्र होता है और हमारा आत्मा इसका साक्षी रहता है।
मनुष्य योनि को सबसे उत्तम इसीलिए कहा गया है, क्योंकि इसमें विवेक के द्वारा मनुष्य अपने कर्मो पर नियंत्रण कर सकता है। हालांकि इसके लिए पहले उसे अपने अंदर विद्यमान ईश्वरीय तत्व आत्मा के दर्शन करने होते हैं। अपने आत्मा के दर्शन को ही आत्म-साक्षात्कार कहा जाता है, परंतु आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में जाने के लिए उसे पहले कर्म क्षेत्र में विद्यमान तत्वों के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए विनम्रता, अहिंसा, सरलता, स्थिरता, आत्मसंयम, इंद्रिय विषयों का परित्याग और ईश्वर की भक्ति जैसे गुणों को धारण करना अनिवार्य होता है। फिर वह सम स्थिति में आकर अपने अंदर विद्यमान ईश्वर तत्व को आत्म-साक्षात्कार के रूप में अनुभव करने लगता है। इस स्थिति में वह अपने कर्म फल को ईश्वर को समर्पित करते हुए परम आनंद की अनुभूति करता है।
इस स्थिति में प्रवेश करने के लिए मनुष्य को योग और ध्यान के रास्ते पर चलना होता है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात मनुष्य अपनी जीवन यात्र को समाप्त करके शांतिपूर्वक परम ब्रrा में विलीन होकर जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए मनुष्य योनि को पाकर भी यदि कोई व्यक्ति जीवन के अंतिम लक्ष्य को नहीं पाता है तो एक बहुमूल्य अवसर को खो देता है।
19 авг 2023