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काव्य 38 || 48 दिवसीय भक्तामर शिविर ( 19 Sep 2024 ) आष्टा || मुनि श्री विनंदसागर जी  

VINAND PRAVAH
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काव्य : 38
श्च्योतन् मदाविल विलोल कपोलमूल-
मत्त-भ्रमद् भ्रमर नाद विवृद्ध-कोपम्।
ऐरावताभ - मिभ - मुद्धत - मापतन्तं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भव-दाश्रितानां ।।38।।
फल : हस्तिमद-भंजक
अन्वयार्थ
श्च्योतन् = झरते हुए, मदाविल = मद से मलिन, विलोल = चंचल, कपोलमूल = गण्डस्थल पर, मत्त = उन्मत्त, भ्रमद् = परिभ्रमण करते हुए, भ्रमर = भौंरों के, नाद = शब्द से, विवृद्धकोपम् = जिसका क्रोध बढ़ रहा है, ऐसे, ऐरावताभम् = ऐरावत (हाथी) के समान विशाल, आपतन्तम् = सामने आते हुए, उद्धतम् = अभिमानी, इभम् = हाथी को, दृष्ट्वा = देखकर, भवदाश्रितानाम् = आपके आश्रित जनों को, भयम् = भय, नो = नहीं, भवति = होता है।
भावार्थ
हे भगवन् ! उन्हें मद व क्रोध से उन्मत्त हुआ हाथी भी नहीं डरा पाता जो मनुष्य आपका आश्रय ले लेते हैं।
जाप : ॐ हीं अईं णमो मण बलीणं।
(जो मनोबल ऋद्धि के धारी हैं, ऐसे मुनिवर को मेरा प्रणाम होवे)
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19 сен 2024

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