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गवरी यानि राजस्थान का लोकनृत्य। भील समाज के लोग शहर या गांव के किसी इलाके में गोला बनाकर बीच में माताजी को स्थापित करने के थाली - मांडल (ढोल) की थाप पर नृत्याभिनय करते है। ये परंपरा कई बरसों से चली आ रही है। मॉ गौरज्या (पार्वती) की भक्ति आराधना करने के लिए किया जाता है। तरह तरह के चमकिले कपड़े और कलरफुल मेकअप के साथ गोल बनाए गए चक्र में घुम-घुम के संवाद के साथ नृत्याभिनय करते है। मेवाड़ आंचल में ठंड़ी राखी से लेकर 40 दिन तक गवरी की ही धुन सुनाई देती है। सुबह से लेकर शाम तक होने वाले इस अनुष्ठान में कई तरह के खेल दिखाए जाते है। हर खेल में सामाजिक जागरूक करने का संदेश भी देते है जैसे - चोरी नही करना चाहिए उसका अंत बुरा होता है (गोमा के खेल में ), पेड़ को नही काटना चाहिए उससे क्या मुसिबत आ सकती है ( राजा-रानी,वरजू कांजरी खेल में ), जीव हत्या नही करनी चाहिए( कालूकिर के खेल में ), बहादुरी से संकट का सामना करना (भीलू राणा के खेल में मुगल के साथ लड़ाई ), खुद भी खुश रहों दुसरों को भी खुश रखों ( सेठजी के खेल में ), प्रेम का सुंदर चित्रण (कान्हा-गुजरी के खेल मे) नारीशक्ति और सम्मान (राजा-रानी)। इसके अलावा भी कई खेल होते है। एक गवरी में करीब 150 के करीब सदस्य होते है। सबसे खास बात ये है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी सदस्य पुरूष ही होते है। उनमें से कुछ लोग महिला का किरदार भी निभाते है। 40 दिन के बाद गवरी का एक शाही सवारी के साथ जल में विसर्जन कर दिया जाता है
क्यों खेलते है गवरी।
लोकनाट्य : शक्ति की भक्ति के साथ नैतिक और पर्यावरण शिक्षा के संदेश
लोक संस्कृति के जानकार डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू बताते हैं कि गवरी में कलाकार घेरा बनाकर बीच में माताजी को स्थापित करते हैं। इसके इर्द-गिर्द थाली-मांदल की थाप पर नृत्य और अभिनय करते है। यह मां गौरज्या (मां गौरी) की भक्ति का प्रतीक है, जिसमें कलाकार चमकीले कपड़ों के साथ रंग-बिरंगे मेकअप करते हैं। मेवाड़ में ठंडी राखी से लेकर 40 दिन तक गवरी की ही धुन सुनाई देती है। सुबह से शाम तक कई तरह के खेल दिखाए जाते हैं। हर खेल में सामाजिक जागरूकता के संदेश भी होते हैं। जैसे- गोमा के खेल में चोरी नहीं करने, राजा-रानी, वरजू कंजरी के खेल में पेड़ों की रक्षा, कालू कीर के प्रसंग में जीव हत्या नहीं करने, भीलू राणा के खेल में बहादुरी से संकट का सामना करने की सीख होती है। सेठ जी की कहानी सबको खुश रखने की, जबकि कान्ह गूजरी प्रसंग में प्रेम का चित्रण होता है। एक गवरी दल में करीब 150 सदस्य होते हैं। सबसे खास ये कि सभी पुरुष होते हैं, जिनमें से कुछ महिलाओं के किरदार निभाते है। 40 दिन बाद कृत्रिम हाथी पर शाही सवारी के साथ गवरी का वळावण (िवसर्जन) होता है।
अनूठा है हर खेल : गणेश आराधना से शुरुआत के बाद भमरिया-भमरी, कालू कीर, बावजी महाराज, भियांवड़ साथ, मां अंबे, नाहरसिंह और हनुमान जी से जुड़े प्रसंगों को जीवंत किया जाता है। डॉ. जुगनू बताते हैं कि यह नाट्य अनुष्ठान आदिवासी समाज के कठोर तप से कम नहीं है। क्योंकि इसमें भाग लेने वाले कलाकार 40 दिन तक घर से बाहर नंगे पांव रहते हैं। मां गौरज्या को माता पार्वती का स्वरूप माना जाता है, जो आदिवासियों में विशेष रूप से पूज्य हैं। गौरज्या लज्जा के रूप में होती है, जो अपना मुंह बांधे रखती है। सिर्फ आंखें और नाक खुले रहते हैं। जनजातियों में लज्जा गौरी मान्यता पुरानी है। दल के सदस्य 40 दिन तक नहाते तक नहीं हैं। दिन में एक बार भोजन, हरी सब्जी, मांस-शराब से दूरी, मंदिरों में रहने और जमीन पर सोने के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
गवरी में भाग लेने वाले के बहुत कठीन होते है नियम
गवरी नृत्याभिनय में भाग लेने वाले सदस्य 40 दिन तक नहाते नही है, दिन में एक बार ही भोजन करना, हरी सब्जी,मांस -मदिरा का त्याग करना, नंगे पाव रहना , सवा महिने तक अपने घर में नही जाना, जमीन पर ही सोना और मंदिर में ही रहना, ब्रह्मचर्य का पालन आदि नियमों का कड़ा पालन करना पड़ता है।
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20 сен 2024