दानलीला राग बिलावल
तुम नंदमहर के लाल। रानी जसुमति प्रान आधार || मोहन जान दे ॥
श्रीगोवर्धनकी शिखर तें मोहन दीनी टेर
अंतरंग सों कहत हैं सब ग्वालिनि राखौ घेर।नागरि दान दे । ग्वालिन रोकी ना रहें ग्वाल रहे पचहार |
अहो गिरिधारी दौरियो सो कह्यौ न मानत ग्वार
चली जात गोरस मदमाती मानों सुनत नहीं कान ||
दौरि आये मनभामते सो रोकी अंचलतान
एक भुजा कंकन गहैं एक भुजा गहि चीर
दान लैन ठाढ़े भये गहबर कुंज कुटीर
बहुत दिना गई हो दान हमारौ मार
आज हों लेहों आपनौ दिन दिन कौ दान संभार।
तुम रसनिधान नवनागरी निरख बचन मृदु बोल ||
क्यों मुरि ठाढ़ी होत है घूँघटपट मुखखोल ||
हरख हियें हरि करखिकें मुखतें नील निचोल ॥
पूरन प्रगट्यौ देखियै मानो चंद घटाकी ओल
ललित बचन समुदित भये नेति नेति यह बैन ||
उर आनंद अतिही बढ्यौ सो सुफल भये मिलि नैन ||
यह मारग हम नित गईं कबहूँ सुन्यौ नहीं कान |
आज नई यह होत है सो माँगत गोरसदान || मोहनजानदै ||तुम नवीन नवनागरी नूतन भूषण अंग।।
नयौ दान हम माँगना सो नयौ वन्यौ यह रंग ||
चंचल नयन निहारिये अति चंचल मृदुबैन ।
कर नहीं चंचल कीजिये तजि अंचल चंचल नैन ॥
सुंदरता सब अंगकी वसनन राखी गोय।
निरखि निरखि छवि लाड़िली मेरौमन आकर्षित होय ॥
लै लकुटी ठाढ़े रहे जानि साँकरीखोर ||
मुसकि ठगौरी लायकें मोसौं सकत न लई रति जोर ||१
नेंक दूरि ठाढ़े रहौ कछु और सकुचाय ।।
कहा कियौ मन भांवते मेरे अंचल पीक लगाय ||
कहा भयौ अंचल लगी पीक हमारी जाय ।।
याके बदलें ग्वालिनी मेरे नयनन पीक लगाय
सूधे वचनन माँगिये लालन गोरस दान ||
मोहन भेद जनायकै सो कहत आनकी आन ।
जैसें हम कछु कहत हैं ऐसी तुम कहि लेहु |
मनमाने सो कीजिये पर दान हमारौ देहु ||
कहा भरें हम जात हैं दान जो माँगत लाल ||
भई अवार घर जानदै सो छाँड अटपटी चाल ||
भरें जात हौ श्रीफल कंचन कमल बसनसों ढाँक |
दान जो लागत ताही कौ तुम दैकर जाहु निशाँक
इतनी विनती मानियै माँगत ओली ओड़ ॥
गोरस कौ रस चाखियै लालन अंचल छोड़ ||
संग की सखी सब फिर गईं सुनिहै कीरति माय |
प्रीति हिये में राखिये सो प्रगट कियें रस जाय ॥
काल्ह बहोरि हम आइ हैं गोरस लै सब ग्वारि ॥
नीकी भाँति चखाइहों मेरे जीवन हों बलिहारि ||
सुनि राधे नवनागरी हम न करें विश्वास ||
कर कौ अमृत छाँडिकै को करै काल्हि की आस ||
तेरी गोरस चाखिवै मेरो मन ललचाय ||
पूरन शशि कर पायकें चकोरन धीर धराय ||
मोहन कंचन कलशिका लीनी शीश उत्तार ॥
श्रमकन बदन निहारि कें सो ग्वालिनी अति सुकुमार ||
नव विजन गहि लालजु श्रीकर देत दुराय ||
श्रमित भई चलौ कुंज में नेंक पलोटू पाय ||
जानत हों यह कौन है ऐसी ढीठ्य देत ||
श्रीवृषभान कुमारि है अरी तोहि बीच को लेत ||
गोरे श्रीनंदरायजू गोरी जसुमति माय।
तुम याही तें साँमरे ऐसे लच्छिन पाय॥
मन मेरौ तारन बसे और अंजन की रेख ॥
चोखी प्रीत हियें बसै याते साँवल भेख ||
आप चालसो चालियै यहै बड़ेनकी रीत ॥
ऐसी कबहुँ न कीजिये हँसें लोग बिपरीत ||
ठाले ठूले फिरत हौ और कछू नहिं काम ॥
बाट घाट रोकत फिरौ आन न मानत श्याम ॥
यही हमारौ राज है ब्रजमंडल सब ठौर ॥
तुम हमारी कुमुदिनी हम कमल बदन के भौंर ||
ऐसे में कोऊ आइ है देखे अद्भुत रीति |
आज सबै नँदलालजू प्रगट होयगी प्रीति ||
ब्रज वृंदावन गिरि नदी पशु पंछी सब संग ॥
इनसों कहा दुराइयै प्यारी राधा मेरौ अंग ||
अंसभुजा धरि लै चले प्यारी चरन निहोर ॥
निरखत लीला रसिकजू जहाँ दान मान की ठोर ||
डॉ भगवान दास कीर्तनकार, कामवन
(अष्टछाप के श्रीगोविंदस्वामीजी के वंशज)
ડૉ ભગવાન દાસ કીર્તનકાર, કામવન
(અષ્ટછાપ કે શ્રીગોવિંદસ્વામીજી કે વંશજ)
सम्पर्क 9828737151
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24 сен 2024