Kaha Gaye Ve Chakri Album : Barah Bhavna Singer : Rakesh Kala Music : Kishore Label : Brijwani Cassettes Produced By :Sajal Kumar Also listen on iTunes: itunes.apple.com/in/album/bar... Saavn: www.jiosaavn.com/song/barah-b...
वीतराग सर्वज्ञ देव की जय जिनेंद्र प्रभु को मेरा कोटि कोटि नमोस्तु. यह 12 भावना मनुष्य तथा संसार के सभी जीवो के जीवन का सही चित्रण करती है कि संसार में सुख नाम की कोई चीज नहीं है तथा जिनेंद्र प्रभु की शरण के अलावा भव संसार से मुक्ति का भी कोई मार्ग नहीं है तथा इस बारह भावना मैं वर्णित संसार के दुखों की व्याख्या से बैरागी की उत्पत्ति होती है जय जिनेंद्र
देव धर्म गुरु शरण जगत मे और नही कोई भ्रम से फिरे भटकता चेतन युही उम्र खोयी और मानुष जन्म अनेक विपत्ति मय कही ना सुख देखा Ye lines mujhe bhot dil se pasand aayi hai
प्रति दिन इन बारह भावनाओं का चिन्तन करने से संसार से वैराग्य की भावनाओं में वृद्धि होती है जिससे ये संसार की सब वस्तुऐं विनसवर लगती है तथा ये सभी क्षणभंगुर सी है इनसे मोह करना व्यर्थ सा लगता है ।
Jai jinendra ji Namostu bhagwan Namostu Acharya Shree ji Namostu gurudev Jai Jai gurudev Jaikara gurudev ka Jai Jai gurudev Jai ho Shri Acharya bhagwan vidhyasagar ji maha muniraj ki jai ho Jain Dharam ki jai ho Jainam Jayatu Shasanam...🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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हर जीव को इन बारह भावनाऔं का दैनिक रूप से चिंतन करना चाहिए । इस संसार की नशवरता ही सवीकार करनी चाहिए । आज जो है कल उसका सवरूप बदलता रहता है सदा एकसा नहीं रहता है ।
कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा। कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा॥ कहाँ कृष्ण रुक्मणी सतभामा, अरुसंपति सगरी। कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी||(2) नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रन में। गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में॥ मोह- नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश करैं, गुरु बारह भावन को||(3) 1. अनित्य भावना सूरज चाँद छिपै निकलै ऋतु, फिर फिर कर आवै। प्यारी आयु ऐसीबीतै, पता नहीं पावै॥ पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहिं हटता। स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों, आरे सों कटता||(4) ओस-बूंद ज्यों गले धूप में, वा अंजुलि पानी। छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझै प्रानी॥ इंद्रजाल आकाश नगर सम,जग-संपत्ति सारी। अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी||(5) 2. अशरण भावना काल-सिंह ने मृग- चेतन को घेरा भव वन में। नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मन में॥ मंत्र तंत्र सेना धन संपति, राज पाट छूटे। वश नहिं चलता काल लुटेरा,काय नगरि लूटे||(6) चक्ररत्न हलधर सा भाई, काम नहीं आया। एक तीर के लगत कृष्ण की विनश गई काया॥ देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरै भटकता चेतन, यूँ ही उमर खोई||(7) 3. संसार भावना जनम-मरण अरु जरा- रोग से,सदा दु:खी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव-परिवर्तन सहता॥ छेदन भेदन नरकपशुगति, वध बंधन सहना। राग-उदय से दु:ख सुर गति में, कहाँ सुखी रहना||(8) भोगिपुण्य फल हो इक इंद्री, क्या इसमें लाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरुजाली॥ मानुष-जन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा। पंचम गति सुख मिले शुभाशुभ को मेटो लेखा||(9) 4. एकत्व भावना जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी। और किसी का क्या इक दिन, यह देह जुदी होगी॥ कमला चलत न पैड़ जाय,मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवैं, पिता पुत्र दारा||(10) ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरैं धरते। ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते॥ कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारै। जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारै||(11) 5. अन्यत्व भावना मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमकै। मृग चेतन नितभ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थककै॥ जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक भटक मरता। वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता||(12) तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी। मिले-अनादि यतन तैं बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी॥ रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौलों पौरुष थकै न तौलों उद्यम सों चरना||(13) 6. अशुचि भावना तू नित पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली। निश दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली॥ मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी। मांस हाड़ नशलहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी||(14) काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै। फलै अनंत जु धर्म ध्यान की, भूमि-विषै बोवै॥ केसर चंदन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसते होय, अपावन निशदिन मल जारी||(15) 7. आस्रव भावना ज्यों सर-जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को। दर्वित जीव प्रदेश गहै जब पुद्गल भरमन को॥ भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य के दोनों करता,कारण बन्धन को||(16) पन-मिथ्यात योग- पन्द्रह द्वादश- अविरत जानो। पंच रु बीसकषाय मिले सब, सत्तावन मानो॥ मोह- भाव की ममता टारै, पर परिणति खोते। करै मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानी जन होते||(17) 8. संवर भावना ज्यों मोरी में डाटलगावै, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोकै संवर, क्यों नहिं मन लाता॥ पंचमहाव्रत समिति गुप्तिकर वचन काय मन को। दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह भावन को||(18) यह सब भाव सत्तावन मिलकर, आस्रव को खोते। सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँपड़े सोते॥ भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध- भावन- संवर भावै। डाँट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै||(19) 9. निर्जरा भावना ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पड़ै भारी। संवर रोकै कर्म निर्जरा, ह्वै सोखन हारी॥ उदय-भोग सविपाक-समय, पक जाय आमडाली। दूजी है अविपाक पकावै, पालविषै माली||(20) पहली सबके होय नहीं, कुछ सरैकाज तेरा। दूजी करै जू उद्यम करकै, मिटे जगत फेरा॥ संवर सहित करो तप प्रानी,मिलै मुकत रानी। इस दुलहिन की यही सहेली, जानै सब ज्ञानी||(21
@@surbhijain1483 10. लोक भावना लोक अलोक आकाश माहिं थिर, निराधार जानो। पुरुष रूप कर- कटी भये षट् द्रव्यन सोंमानो॥ इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै यामैं, कर्मउपाधी है||(22) पाप पुण्य सों जीव जगत में, नित सुख दु:ख भरता। अपनी करनी आप भरै सिर, औरन के धरता॥ मोह कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आसा। निज पद में थिरहोय लोक के, शीश करो वासा||(23) 11. बोधि-दुर्लभ भावना दुर्लभ है निगोद सेथावर, अरु त्रस गति पानी। नर काया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी॥ उत्तमदेश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक कुल पाना। दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुणठाना||(24) दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना। दुर्लभ मुनिवर के व्रत पालन,शुद्ध भाव करना॥ दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै। पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे||(25) 12. धर्म भावना धर्म अहिंसा परमो धर्म: ही सच्चा जानो। जो पर को दुख दे, सुख माने, उसे पतित मानो॥ राग द्वेष मद मोह घटा आतम रुचि प्रकटावे। धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे||(26) वीतरागसर्वज्ञ दोष बिन, श्रीजिन की वानी। सप्त तत्त्व का वर्णन जामें, सबको सुखदानी॥ इनका चिंतवन बार-बार कर, श्रद्धा उर धरना। ‘मंगत’ इसी जतनतैं इकदिन,भव-सागर-तरना||(27)
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