नन्दादेवी का मेला भाद्रमास की पंचमी मे प्रारम्भ होता है जिसमें नन्दा एवं सुनन्दा की केले के वृक्षों से दो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं. पुजारी अपने साथ, रोली (पिट्टयां), चावल (अक्षत), वस्त्र (लाल, सफेद) धूप बत्ती, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री ले जाता है मंत्रोच्चारण के बाद पुजारी द्वारा केले के पेड़ों पर अक्षत के दाने फैके जाते हैं प्रथम क्रम में चयनित केले के वृक्ष से नन्दा एवं द्वितीय से सुनन्दा की प्रतिमायें बनाने की परम्परा चली आई है. यदि किसी कारणवश इन दोनों में से कोई एक अथवा दोनों केले के स्तम्भ थोड़े से भी खंडित अवस्था में मिले तो इनके स्थान पर तीसरे और चौथे स्तम्भ से प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है. वृक्षों का चयन हो जाने के बाद इनकी पूजा, आरती करके इन पर वस्त्र बांध दिये जाते हैं.सप्तमी तिथि को ब्राह्म मुहूर्त में इन स्तम्भों को लाने के लिए, नन्दादेवी के प्रांगण से यात्रा प्रारम्भ होती है. इस यात्रा में लाल निशाण (bhumiyal ) सबसे आगे रहता है यह परम्परा बहुत समय पूर्व राजपूतों द्वारा कन्या को जीतने को जाते समय की है और आज भी कुमाऊँ में शादी के समय वर के विवाह करने के लिए जाते समय यही ध्वज आगे रहता है. इसके पीछे नन्दादेवी की महिमा का वर्णन करते हुवे ‘जगरिये’ परम्परागत वाद्ययंत्र, जनसमूह एवं अन्त में सफेद ध्वज रहता है.
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2 окт 2024