श्राद्ध क्यों और कैसे किया जाता है ? || Significance & Importance of Shradh || @Bhaktiarora1683
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, एक आत्मा को उसके जीवन के आधार पर स्वर्ग या नर्क की प्राप्ति होती है। यदि व्यक्ति ने जीवन में अच्छे कर्म किए है तो उसे स्वर्ग मिलेगा, लेकिन बुरे कर्म करने वाली आत्मा को नर्क का रास्ता दिखाया जाता है। परन्तु इस फैसले तक पहुंचने से पहले आत्मा कई जगहों पर भटकती रहती है।
कहते हैं कर्मों के आधार पर आत्मा को देवयोनि या फिर मनुष्य योनि प्राप्त होती है। अच्छे कर्म कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली आत्मा को देवयोनि मिलती है लेकिन वहीं दूसरी ओर अभी भी अपनी इच्छाओं के घेरे में फंसी हुई आत्मा मनुष्य योनि में फिर से जन्म लेने को मजबूर हो जाती है।
लेकिन इन दोनों योनि के बीच में है प्रेत योनि, जिससे बाहर आने में आत्मा को काफ़ी समय लग जाता है। यह वह समय होता है जब आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने के बाद वायु रूप में पृथ्वी पर ही भटकती रहती है।
जिन आत्माओ का एहसास मनुष्य को अपने आसपास होता है,यह वही हैं जो प्रेत योनि में विचरण कर रही होती हैं। इस आत्मा को प्रेत योनि से बाहर निकाल कर और आगे के चरण यानि पितृ चरण तक पहुंचाने के लिए ही पितृ पूजा की जाती है।
भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय सोलह श्राद्ध या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। यह वही समय है जब शास्त्रों के अनुसार देवकार्यों से पूर्व पितृ कार्य करने का निर्देश दिया गया है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध से केवल पितृ ही तृप्त नहीं होते बल्कि समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध की साधारणत: दो प्रक्रियाएं हैं, पहली है पिंडदान और दूसरी ब्राह्मण भोजन। ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितृ कव्य को खाते हैं। पितृ स्मरण मात्र से ही श्राद्ध प्रदेश में आते हैं तथा भोजनादि प्राप्त कर तृप्त होते हैं।
जो व्यक्ति पूरी श्रद्धा से अपने पूर्वजो के लिए श्राद्ध करता है उसके पूर्वज प्रसन्न होकर उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं और पितृ लोक से आगे चले जाते हैं, और जो पितृ श्राद्ध नहीं पाते हैं वो प्रेत योनि में ही भटकते रहते हैं और अपने प्रियजनों को श्राप दे देते हैं।
10 окт 2024