गुरु देव के देव हो।। आप बड़े जगदीश ।। बेडी बव जल बिचमे गुरु तारो विसवादिश।। गुरु बिना घन ना उपजे ।।पर गुरु बिना मिटे ना दोस ।। गुरु बिना लिखे ना सत्य को ।।बीरा गुरु बिना मिले ना मोक्ष ।। सतगुरु आया ऐ सैया मारे पावणा।। गणी तो कर मनवार सैया मारी पावणा ।। चोक बुवारू री में पंखीमोर से।।आसण गडाव चंद पट सतगुरु आया री सैया मारे पावणा।। चंवर डुलाऊ री में कच्चा दूध से।।2 चंवर डुलाव कव चार सतगुरु आया ऐ पावणा ।। शब्द सुणा या री सत संग माईने।। खोलय मारे हिरदे डा किवाड।। सतगुरु आया ऐ सिया मारी पावणा।। बरम म मिटाया जी भोल जिव रो।।बाग या मारा बरम अंदर आया पावणा।। भाई तो मीरा की जी सुण जो विनती।। कर जो मेरी नवाडी न पार सतगुरु आया पावणा
।।मुक्तक छंद कविता।।सतधाम की स्वानुभूति पर आधारित छंद रचना।।,,गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहर गम्भीर। चहुँ दिस दमके दामिनी, भीजै दास कबीर।।गगन मंडल के बीच मे, झलके सत का नूर। निगुरा गम पावे नही, पहुंचे गुरु मुख सूर।।01।।गगन मंडल के बीच मे, महल पडा एक चीन्ह। कहे कबीर सो पावही, जिहि गुरु परिचय दीन्ह।।गगन मंडल के बीच मे, बिना कलम की छाप। पुरुष तहाँ एक रमि रहा, नही मंत्र नही जाप।।02।।गगन मंडल के बीच मे,तुरी तत्व एक गाँव। लच्छ निशाना रुप का, परखि दिखाया ठांव।।गगन मंडल के बीच मे, जहाँ सोहंगम डोर। शब्द अनासत होत है, सुरति लगी तहं मोर।।03।।गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकाश। तहाँ कबीरा संत जन, सत पुरुष के पास।।गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकाश। तहाँ कबीरा बंदगी, कर कोई निज दास।।04।।दीपक जोया ज्ञान का, देखा अपरम देव। चार वेद की गम नही, तहाँ कबीरा सेव।।मान सरोवर सुगम जल, हंसा केलि कराय। मुक्ताहल चुगै, अब उडि अंत ना जाय।।05।।सुन्न महल मे घर किया, बाजे शब्द रसाल। रोम रोम दीपक भया, प्रगटे दीन दयाल।।पूरे से परिचय भया, दुख सुख मेला दूर। जम सो बाकी कटि गयी, साँई मिला हजूर।।06।।सुरति उडानी गगन को, चरन बिलंबी जाय। सुख पाया साहेब मिला, आनंद उर ना समाय।।निर्गुण राम निरंजन राया, जिसने सकल सृष्टी उपजाया। निर्गुण सगुण दोऊ से न्यारा, कहे साँई अरुण जी महाराज सो राम हमारा।।07।।,,साँई अरुण जी महाराज नासिक महाराष्ट्र को सादर समर्पित,,सालिकराम सोनी।।,,।।