सालासर बालाजी मंदिर का इतिहास
संत शिरोमणी, सिद्धपुरूष, भक्त प्रवर श्री मोहनदास जी महाराज की असीम भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं रामदूत श्री हनुमान जी ने मूर्ति रूप में विक्रम संवत् 1811 (सन् 1755) श्रावण शुक्ला नवमी शनिवार, आसोटा ग्राम में प्रकट होकर अपने परम भक्त मोहनदास जी महाराज की मनोकामना पूर्ण की। अपने आराध्य से प्राप्त आशीर्वाद के फलस्वरूप श्री मोहनदास जी ने विक्रम संवत 1815 (सन् 1759) में सालासर में उदयराम जी द्वारा मंदिर-निर्माण करवाकर श्री उदयराम जी एवं उनके वंशजों को सेवा-पूजा का कार्य सौंपकर स्वयं जीवित समाधिस्थ हो गये।
श्रावण शुक्लपक्ष नवमी, संवत् 1811 - शनिवार को एक चमत्कार हुआ। नागौर जिले में असोटा गाँव का एक किसान अपने खेत को जोत रहा था।अचानक उसके हल से कोई पथरीली चीज़ टकरायी और एक गूँजती हुई आवाज पैदा हुई। उसने उस जगह की मिट्टी को खोदा और उसे मिट्टी में सनी मूर्त्ति मिलीं। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन लेकर वहाँ पहुँची। किसान ने अपनी पत्नी को मूर्त्ति दिखायी। उन्होंने अपनी साड़ी (पोशाक) से मूर्त्ति को साफ़ की। यह मूर्त्ति बालाजी भगवान श्री हनुमान की थी। उन्होंने समर्पण के साथ अपने सिर झुकाये और भगवान बालाजी की पूजा की और उसने अपनी पत्नी द्वारा भोजन में लाए गए बाज़रे के चूरमे का भोग लगाया और तभी से आज तक श्री बालाजी महाराज को बाज़रे के चूरमे का भोग लगाते हैं। भगवान बालाजी के प्रकट होने का यह समाचार तुरन्त असोटा गाँव में फ़ैल गया। असोटा के ठाकुर ने भी यह खबर सुनी। बालाजी ने उसके सपने में आकर उसे आदेश दिया कि इस मूर्त्ति को चूरू जिले में सालासर भेज दिया जाए। उसी रात भगवान हनुमान के एक भक्त, सालासर के मोहन दासजी महाराज ने भी अपने सपने में भगवान हनुमान यानि बालाजी को देखा। भगवान बालाजी ने उसे असोटा की मूर्त्ति के बारे में बताया। उन्होंने तुरन्त आसोटा के ठाकुर के लिए एक सन्देश भेजा। जब ठाकुर को यह पता चला कि आसोटा आये बिना ही मोहन दासजी को इस बारे में ज्ञान है, तो वे चकित हो गये। निश्चित रूप से, यह सब सर्वशक्तिमान भगवान बालाजी की कृपा से ही हो रहा था। इधर अपने आराध्य की कृपा से मोहनदास जी को यह सब भान (ज्ञात) हो जाने के कारण, अपने प्रभु की अगवानी करने के लिए उन्होंने सालासर से प्रस्थान किया। मूर्ति सम्मानपूर्वक लाई गई। महात्मा मोहनदास जी ने निर्देशित किया कि “बैल जहाँ पर भी रूकेंगे, वहीं पर मूर्ति की स्थापना होगी”| कुछ समय पश्चात बैल रेत के टीले पर जाकर रूक गये तो उसी पावन-पवित्र स्थान पर विक्रम संवत् 1811 श्रावण शुक्ला नवमी (सन् 1755) शनिवार के दिन श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की स्थापना की गई। मूर्त्ति को सालासर भेज दिया गया और इसी जगह को आज सालासर धाम के रूप में जाना जाता है। विक्रम संवत् 1815 (सन 1759) में नूर मोहम्मद व दाऊ नामक कारीगरों से मंदिर का निर्माण करवाया गया, जो कि साम्प्रदायिक सौहार्द एवं भाईचारे का अनुपम (अनूठा) उदाहरण हैं।
अपने आराध्य ईष्ट को साक्षात् मूर्तिस्वरूप में पाकर उनकी सेवा-पूजा हेतु श्री मोहनदास जी ने अपने शिष्य/भांजा उदयराम को अपना चोगा पहनाकर उन्हें दीक्षा दी। तत्पश्चात् उसी चोगे को गद्दी के रूप में निहित कर दिया गया। श्री हनुमान जी की मूर्ति का स्वरूप दाड़ी व मूंछ युक्त कर दिया क्योंकि सालासर आने से पूर्व श्री हनुमान जी ने स्वप्न में श्री मोहनदास जी को इसी स्वरूप में दर्शन दिये थे। मंदिर प्रांगण में ज्योति प्रज्जवलित की गई जो विक्रम संवत् 1811 (सन् 1755) से अद्यावधि पर्यन्त अखण्ड रूप से अनवरत दीप्यमान है। भक्त शिरोमणी मोहनदास जी महाराज अपने तपो बल से विक्रम संवत् 1850 (सन् 1794) वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को प्रातःकाल जीवित समाधि लेकर ब्रह्म में लीन हो गये।
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17 окт 2024