आज हम बात कर रहे हैं ‘हुड़किया बौल’ की. उत्तराखण्ड में वर्तमान में धान की रोपाई के दौरान आज भी कुछ स्थानों पर घुटनों तक खिंची मिरजई, चूड़ीदार पैजामा, सिर पर पगड़ी पहने हाथ में हुड़का लिये एक आदमी दिख जायेगा. जो हुड़के की गमक और अपने बोलों से लोगों के काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है ।
भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र और छाया के देवता मेघ की वंदना से यह हुड़किया अपना गायन शुरू करता है. उसके बाद हुड़किया अच्छी फसल के लिये गांव के देवी-देवताओं की विनती करता है. इसके बाद जिस आदमी के खेत में रोपाई लगाई जाती है उसका नाम लेकर बताता है कि आज फ़ला आदमी की जमीन में बौल होगा और मैं फलाने राजा या भड़ की गाथा गाऊंगा. उसके बाद रोपाई कर रहे लोगों से फुर्ती से हाथ चलाने के लिये कहता हुआ गाथा शुरू करता है.
‘भड़’ का अर्थ वीर से है. जैसे देवता बना दिये गये मृत मनुष्यों की गाथायें जागर कहलाती हैं वैसे ही कुमाऊं में ऐतिहासिक योद्धाओं के शौर्य वर्णन की गाथायें भड़ौ और कटकू कहलाती हैं. भारत में वीरगाथाओं का प्रचलन संभवतः मध्यकाल या पूर्व मध्यकाल से माना जा सकता है. जैसे राजस्थान में पंवाड़े होते हैं उसी तरह कुमाऊं में भड़ौ और कटकू हैं.
हिमालयी क्षेत्र में मध्यकालीन दरबारों के हुड़क्ये और भाट राजाओं की सेनाओं के साथ युद्ध में जाते और सेना में वीरता का भाव जगाने के लिये बड़े-बड़े युद्धाओं के गीत गाते थे. यह गीत ही भड़ौ कहलाते थे और इनको गाने वाला हुड़क्या, चम्प्या या रणचम्प्या कहलाता है.
कटकू का अर्थ सेना से है. नगाड़ों के साथ सेनाओं के लड़ने की विषयवस्तु पर बनीं गाथायें ‘कटकू’ कही जाती है. कटकू को ही कडौक या कड़कू कहते हैं.
मध्यकाल तक हुड़क्या का जिक्र किसी जाति के लिये किये जाने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं. इस काल तक उनकी आर्थिक स्थिति और समाज में स्थान दोनों ही अच्छे कहे जा सकते हैं जो पूरी तरह से राजाओं पर निर्भर थे. मध्यकाल के अंत तक कुमाऊं में उपरी तौर पर तो राजनैतिक स्थिरता आती है लेकिन नीचे स्थित छोटे-छोटे राजाओं में दरिद्रता की शुरुआत होती है. राजाओं में शुरू हुई इस दरिद्रता का प्रभाव हुड़क्याओं पर भी पड़ता है.
अब तक युद्ध में सेना के साथ भेजे जाने वाले हुड़क्याओं को राजा ने अब कृषि बेगारों के बीच भेजना शुरू कर दिया. राजाओं के खेतों में बेगार देने आई प्रजा के मनोरंजन और उनसे तेजी से काम कराने के लिये हुड़क्या का प्रयोग किया जाने लगा. गाथाओं को जब बिना सजाये संवारे कही गद्य में कहीं पद्य में जल्दी-जल्दी कहानी ख़त्म करने की भावना से जब हुड़क्या गाता तो इसे ‘बौल तारना’ कहते. यहीं से गायन की चम्पू-प्रवृत्ति ‘हुड़किया बौल’ की शुरुआत हुई. इस तरह राज दरबारों से हुड़क्या आम जनता के बीच आया. यहीं से हुड़क्या एक जाति के रूप में भी समाज में प्रवेश पाता है.
आधुनिक काल में हुड़क्या गायकों की स्थिति और ख़राब होती गई और उन्हें अछूतों में शामिल कर दिया गया. गांव के बाहर उनके रहने का स्थान बनाया गया. यह स्थिति इतनी ख़राब हो गयी कि एक समय उन्हें अपनी पत्नी और किशोर युवतियों तक को हुड़क्या बौल के गायन के दौरान नचाना पड़ा. हुड़क्या बौल का गायन करने वाला दम्पति हुड़क्या- हुड़क्यानि कहा जाने लगा. यह परम्परा उत्तराखण्ड के गांवों में नब्बे के दशक तक एक बेहद आम दृश्य में एक थी. वर्तमान में हुड़क्या बौल के दौरान हुड़क्यानि के नाचने के परम्परा स्वतः बंद हो गयी है.
भारत की आजादी के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में पुरुष नौकरी के लिये मैदानी भागों में जाने लगे. ऐसे में खेती का पूरा भार महिलाओं पर आ गया. पहाड़ में महिलाओं ने जब खेती का भार संभाला तो ‘हुड़किया बौल’ में भी परिवर्तन आ गया. अब ‘हुड़किया बौल’ में भड़ौ और कटकू से हटकर न्यौली, चांचरी जैसे गीतों ने प्रवेश लिया. वर्तमान में भी रोपाई के दौरान भड़ौ और कटकू से अधिक विरह गीतों को गाया जाता है.
आज भले ही हुड़क्या बौल का जिक्र केवल धान की रोपाई के दौरान आता है लेकिन कुछ दशक पहले तक ‘हुड़क्या बौल’ खेतों में गुड़ाई के दौरान भी गाये जाते थे जिसे ‘गुड़ौल’ कहते थे. ‘गुड़ौल’ के समय ही अधिकतर भड़ौ और कटकू गाये जाते थे. मडुए के खेतों में गुड़ाई के समय सबसे अधिक रूप से ‘हुड़क्या बौल’ गाये जाते थे. पहले मडुए की खेती पहाड़ों में बहुत ज्यादा की जाती थी इसके कारण कामगारों की हौसलाअफजाई के लिये हाथ में हुड़का लिये हुड़क्या ‘हुड़क्या बौल’ का गायन करता था ।
2 окт 2024