गोवर्धनवासी सांवरे तुम बिन रह्यो न जाये । - हे गोवर्धनवासी श्री कृष्ण, अब मैं आपके बिना नही रह सकता बंकचिते मुसकाय के सुंदर वदन दिखाय । लोचन तलफें मीन ज्यों पलछिन कल्प विहाय ॥१॥ - आपकी इस सुन्दर छवि ने मेरा मन मोह लिया है अौर आपकी मुस्कान में मेरा चित्त अटक गया है । जैसे मछली बिना पानी के तडपती है वैसे ही मेरी आँखौ को आपसे बिछडने की तडपन हो रही है अौर मेरा एक एक पल कल्प के समान बीत रहा है । सप्तक स्वर बंधान सों मोहन वेणु बजाय । सुरत सुहाई बांधि के मधुरे मधुर गाय ॥२॥ - हे मोहन आपकी वंशी की धुन सेकडौ संगीत स्वरौ से अोतप्रोत मधुर गीत गा रही है। रसिक रसीली बोलनी गिरि चढ गाय बुलाय । गाय बुलाई धूमरी ऊंची टेर सुनाय ॥३॥ - आप जब पर्वत पर चढकर गायौं को बुलाते हो, अौर उस धूमल गाय को ऊचे स्वर से बुलाते हो, वह छवि मेरे हृदय में बस गयी है । दृष्टि परी जा दिवस तें तबतें रुचे नही आन । रजनी नींद न आवही विसर्यो भोजन पान ॥४॥ - अौर जिस दिन से मैंने आपकी इन छवियौं का दर्शन किया है, मुझे किसी भी अन्य वस्तु में रुचि नही रही अौर नाही मुझे रात को नीद आती है, यहाँ तक कि मैं खाना पीना भी भूल गया हूँ । दरसन को नयना तपे वचनन को सुन कान । मिलवे को हियरा तपे जिय के जीवन प्रान ॥५॥ - हे साँवरे, मेरे जीवनप्राण, तेरे नित्य दर्शन के लिये मेरे नयन, तेरी बोली के लिये मेरे कान एंव तुझसे मिलने के लिये मेरा हृदय तडपता रहता है । मन अभिलाखा यह रहे लगें ना नयन निमेष । इक टक देखौ आवतो नटवर नागर भेष ॥६॥ - अब मेरे मन की यही अभिलाषा है कि मेरे नयन एक क्षण के लिये भी बन्द न हौं अौर तुम्हारे नटवर नागर रूप का ही एकटक दर्शन करते रहैं । पूरण शशि मुख देिख के चित चोट्यो वाहि ओर । रूप सुधारस पान को जैसे चन्द चकोर ॥७॥ - जैसे चकोर पक्षी पूर्णमासी के चन्द्रमा को एकचित होकर देखता रहता है वैसे ही आपके दिव्य स्वरूप का अम्रतमयी पान करने को मेरा चित्त व्याकुल रहता है । लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक । कमल कली रवि ज्यों बढे छिन छिन प्रीति विशेष ॥८॥ - मैं समाज, परिवार अौर शास्त्र की लाज नही कर पा रहा हूँ अौर मेरा पूरा विवेक नष्ट ही हो गया है । हर क्षण मेरी व्याकुलता अापके प्रति विषेश प्रेम को एसे ही बढा रही है जैसे कि सूर्य के उगते ही कमल की कलियाँ बढने लगती हैं । मन्मथ कोटिक वारने निरखत डगमगी चाल । युवति जन मन फंदना अंबुज नयन विशाल ॥९॥ - जैसे युवतिया अपने विशाल नैनौ से साधारण जन के मन को फँसा देती हैं वैसे ही आपकी डगमगाती चाल को देखकर मेरा मन बंध गया है अौर इस चाल पर मैं करोडौं मन्मथ (कामदेव) न्यौछावर कर दू । कुंज भवन क्रीडा करो सुखनिधि मदन गोपाल । हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भुवाल ॥११॥ - हे सुखौं के भण्डार, मदन गोपाल, अाप कुन्ज भवन में वैसी ही क्रीडा करो जैसे वृन्दावन की पुष्प लताअौ पर हर पुष्प का भोग करते हैं । यह रट लागी लाडिले जैसे चातक मोर । प्रेमनीर वरखा करो नव घन नंद किशोर ॥१०॥ - जैसे चातक अौर मोर वर्षा के लिये व्याकुल होकर रट लगाते रहते हैं वैसे ही लाडले मुझे ये रट लग गयी है तो हे नंद किशोर आप नये नये रूप में प्रेम रूपी जल की वर्षा करो । युग युग अविचल राखिये यह सुख शैल निवास । गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥ - हे गोवर्धन नाथ, अगर मुझे युगौं युगौं तक भी पृथ्वी पर जन्म मिले तो गोवर्धन पर्वत ही मेरा निवास हो क्यौंकि आपके गोवर्धनधारी रूप पर चतुर्भुजदास हमेशा बलिहारी है ।
Jai Jai Gurudev. You have sung this 'pad' not only from the core of your heart but soul. Very very touching. I could not prevent tears and the same continued to shed from eyes even after completion of the bhajan. I need you blessings to have same emotions towards that Almighty as can be felt from your most touching voice. Dandwat.........
चल रे जोगी नन्द भवन में सूरदास भजन ब्रज रस धारा Krishn janmastmi madhoor bhajan sunane ke liye link ko click karke suniye ru-vid.com/video/%D0%B2%D0%B8%D0%B4%D0%B5%D0%BE-C8SEZRiw-fE.html
जय श्री कृष्ण जय हो गुरू देव भगवान की श्री नाथ जी का यह भजन सुनकर बहुत ही आतमा को शांति मिलती है जय हो गोवर्धन नाथ की जय जय श्री राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे राधे
श्री कृष्ण प्रेमियों के लिए बहुत ही काम की बात:-) तुम्हारे इस पद का कम से कम एक वर्ष तक भाव से नित्य पाठ व गायन करने वाले को मेरे दर्शन अवश्य होंगे ही :- हमारे प्यारे श्री कृष्ण का अष्ट छाप के कवियों मे चर्तुभुज दास जी को ये वचन दिया है ऐसा नाभा जी ने इनकी जीवनी मे लिखा है क्यों न लाभ लिया जाय ! "जय श्री राधे" गोवर्धनवासी सांवरे तुम बिन रह्यो न जाये । - हे गोवर्धनवासी श्री कृष्ण, अब मैं आपके बिना नही रह सकता बंकचिते मुसकाय के सुंदर वदन दिखाय । लोचन तलफें मीन ज्यों पलछिन कल्प विहाय ॥१॥ - आपकी इस सुन्दर छवि ने मेरा मन मोह लिया है अौर आपकी मुस्कान में मेरा चित्त अटक गया है । जैसे मछली बिना पानी के तडपती है वैसे ही मेरी आँखौ को आपसे बिछडने की तडपन हो रही है अौर मेरा एक एक पल कल्प के समान बीत रहा है । सप्तक स्वर बंधान सों मोहन वेणु बजाय । सुरत सुहाई बांधि के मधुरे मधुर गाय ॥२॥ - हे मोहन आपकी वंशी की धुन सेकडौ संगीत स्वरौ से अोतप्रोत मधुर गीत गा रही है। रसिक रसीली बोलनी गिरि चढ गाय बुलाय । गाय बुलाई धूमरी ऊंची टेर सुनाय ॥३॥ - आप जब पर्वत पर चढकर गायौं को बुलाते हो, अौर उस धूमल गाय को ऊचे स्वर से बुलाते हो, वह छवि मेरे हृदय में बस गयी है । दृष्टि परी जा दिवस तें तबतें रुचे नही आन । रजनी नींद न आवही विसर्यो भोजन पान ॥४।। - अौर जिस दिन से मैंने आपकी इन छवियौं का दर्शन किया है, मुझे किसी भी अन्य वस्तु में रुचि नही रही अौर नाही मुझे रात को नीद आती है, यहाँ तक कि मैं खाना पीना भी भूल गया हूँ । दरसन को नयना तपे वचनन को सुन कान । मिलवे को हियरा तपे जिय के जीवन प्रान ॥५॥ - हे साँवरे, मेरे जीवनप्राण, तेरे नित्य दर्शन के लिये मेरे नयन, तेरी बोली के लिये मेरे कान एंव तुझसे मिलने के लिये मेरा हृदय तडपता रहता है । मन अभिलाखा यह रहे लगें ना नयन निमेष । इक टक देखौ आवतो नटवर नागर भेष ॥६॥ - अब मेरे मन की यही अभिलाषा है कि मेरे नयन एक क्षण के लिये भी बन्द न हौं अौर तुम्हारे नटवर नागर रूप का ही एकटक दर्शन करते रहैं । पूरण शशि मुख देिख के चित चोट्यो वाहि ओर । रूप सुधारस पान को जैसे चन्द चकोर ॥७॥ - जैसे चकोर पक्षी पूर्णमासी के चन्द्रमा को एकचित होकर देखता रहता है वैसे ही आपके दिव्य स्वरूप का अम्रतमयी पान करने को मेरा चित्त व्याकुल रहता है । लोक लाज कुळ वेद की छांड्यो सकल विवेक । कमल कली रवि ज्यों बढे छिन छिन प्रीति विशेष ॥८॥ - मैं समाज, परिवार अौर शास्त्र की लाज नही कर पा रहा हूँ अौर मेरा पूरा विवेक नष्ट ही हो गया है । हर क्षण मेरी व्याकुलता अापके प्रति विषेश प्रेम को एसे ही बढा रही है जैसे कि सूर्य के उगते ही कमल की कलियाँ बढने लगती हैं । मन्मथ कोटिक वारने निरखत डगमगी चाल । युवति जन मन फंदना अंबुज नयन विशाल ॥९॥ - जैसे युवतिया अपने विशाल नैनौ से साधारण जन के मन को फँसा देती हैं वैसे ही आपकी डगमगाती चाल को देखकर मेरा मन बंध गया है अौर इस चाल पर मैं करोडौं मन्मथ (कामदेव) न्यौछावर कर दू । कुंज भवन क्रीडा करो सुखनिधि मदन गोपाल । हम श्री वृंदावन मालती तुम भोगी भ्रमर भुवाल ॥११॥ - हे सुखौं के भण्डार, मदन गोपाल, अाप कुन्ज भवन में वैसी ही क्रीडा करो जैसे वृन्दावन की पुष्प लताअौ पर हर पुष्प का भोग करते हैं । यह रट लागी लाडिले जैसे चातक मोर । प्रेमनीर वरखा करो नव घन नंद किशोर ॥१०॥ - जैसे चातक अौर मोर वर्षा के लिये व्याकुल होकर रट लगाते रहते हैं वैसे ही लाडले मुझे ये रट लग गयी है तो हे नंद किशोर आप नये नये रूप में प्रेम रूपी जल की वर्षा करो । युग युग अविचल राखिये यह सुख शैल निवास । गोवर्धनधर रूप पर बलिहारी चतुर्भुज दास ॥१२॥ - हे गोवर्धन नाथ, अगर मुझे युगौं युगौं तक भी पृथ्वी पर जन्म मिले तो गोवर्धन पर्वत ही मेरा निवास हो क्यौंकि आपके गोवर्धनधारी रूप पर चतुर्भुजदास हमेशा बलिहारी है ।🙏🙏🌹🙏🙏👣🌿
@@rakeshsingal1 kshma karna Maine ek aisi rachna mata meera ji dwara likhi gyi hai Mujhe lga wo hai Ya fir maharaj ji ne aise hi sangeet mein wo mata meera ka koi bhajan gaya hoga Bahut hi sundar hai bhajan
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