प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधी पाऊँ तोहे प्रभु कहे तु मन को पा ले, पा जयेगा मोहे तोरा मन दर्पण कहलाये - २ भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये तोरा मन दर्पण कहलाये - २ मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये तोरा मन दर्पण कहलाये - २ सुख की कलियाँ, दुख के कांटे, मन सबका आधार मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हज़ार जग से चाहे भाग लो कोई, मन से भाग न पाये तोरा मन दर्पण कहलाये - २ तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल तन के कारण मन के धन को मत माटि मेइन रौंद मन की क़दर भुलानेवाला वीराँ जनम गवाये तोरा मन दर्पण कहलाये - २
जो प्रसंग सुनने को मिला है अद्भुत है प्रभु की महान कृपा कृपा के परिणाम के अतिरिक्त और ककएअतइरइक्त और कुछ भी नहीं हो सकता।लेकिन वह महर्षि के शिष्य के शिष्य के साथ संवाद है।।शिष्य जो प्रश्न कर रहे थे वह श्रोत्रीय तो निश्चित निश्चित ही होंगे,अगर ब्रम्हनिष्ट होते तो सत्संग में शायद ही जाते।मैं तो श्रोत्रीय भी नहीं हूं इसलिये क्योंकि इतने गहरे विषय पर बोलने कुछ भी कहने योग्य नहीं हूं