TAPKARA CHURCH HISTORY/तपकरा पल्ली /चर्च का इतिहास#jashpur #tapkara#oraon#ambikapur#kunkuri
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आजादी के पूर्व अंग्रेजी हुकूमत के सामने घुटने टेकने के सिवा और कोई दूसरा चारा नहीं था। बेठ-बेगारी करते-करते हमारे पूर्वजों की रीढ़ की हड्डी टूट चुकी थी। धर्म-सतावट अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। खौफ और दहशत भरे माहौल में आस्था और विश्वास की बंजर भूमि को उर्बर बनाकर, उसमें ईश-वचन का बीजारोपण करना टेढ़ी खींर थी। ऐसी विषम परिस्थितियों के बावजूद हमारे पूर्व मिशनरियों ने अपने जीवन को दाँच में रखकर सेवा कार्य के साथ-साथ आत्माओं की मुक्ति के लिए कार्य करना आरम्भ किया।
सर्वप्रथम फादर कोन्सटेन्ट लीवन्स, ये.सं. ख्रीस्त के संदेश वाहक बनकर छोटानागपुर आये। उन्होंने सामाजिक न्याय दिलाने के साथ ही साथ मुक्ति-कार्य में अपनी अहम् भूमिका निभाई।
ईश-वचन का बीजारोपण
सन् 1903 ईंसवी में कुरडेग-खलीजोर (झारखण्ड) में एक नई पल्ली की स्थापना हुई। निकट पड़ोस में कुरडेग पल्ली की स्थापना से तपकरा क्षेत्र के भाई-बहनों में खुशी की लहर उमड़ पड़ी। आत्मिक भूख व प्यास की तृप्ति के लिए अब क्षेत्र वासी वहीं पैदल आते-जाते रहें।
सन् 1906 ईंसवी के नवम्बर माह में फादर एडमंड दिग्रइस,ये.सं. ने ईश्वरीय रूपी बीज का बीजारोपण करने के लिए तीन चपरासियों के साथ-साथ छः प्रचारकों को यहाँ भेजा। उन्हांेने अपने प्रेरितिक कार्य को बखूबी से पूर्ण किया। परिणामस्वरूप तपकरा, लठबोरा, सिंगीबहार, सुईजोर, जामबहार, केरसई आदि गाँव के भाई-बहनों ने ईसाई धर्म को अंगीकार किया।
धर्म सतावट घटना सन् 1906 ईसवी की है। दिसम्बर महीना था। राजा का भार-ढ़ोकर तपकरा भण्डार पहुँचाने वाले लठबोरा के चार आदिवासियों की राजा के लोगो द्वारा निदर््यतापूर्वक पिटाई की गई। कारण था - वे ईंसाई बन गये थे और उन्होंने अपनी चोटियाँ कटवा ली थी। ईंसाई धर्म अपनाने के कारण तपकरा के अन्य कई लोगों को बेहोशी तक जूतों, लात, थप्पड़, घँूसों आदि से मार-मार कर पैरों तले कुचले जाने तथा जमीन-जायदाद को हड़प् लेने की धमकी का एक मात्र कारण भी उनके द्वारा ईसाई धर्म को अंगीकार करना था
दिन-ब-दिन ख्रीस्तीय धर्म की बढ़ोत्तरी को देख ईसाई विरोधी ताकत अपना सिर उठाने लगी। नव-ख्रीस्तीयों पर विभिन्न प्रकार की शारीरिक यंत्रणाओं के बादल टूट पड़े। लोग धीरज, सहानुभूति और सांत्वना के लाले पड़ने लगे। हाय-तोबा एवं त्राही-त्राही की उस घड़ी में 18 फरवरी, 1907 ई. को फादर दिग्रइस मसीही बन कर आये। जहाँ तक बन पड़ा उन्होनें टूटे दिलों को जोड़़ने का हर संभव प्रयास किया।
फादर पौल फेरोन का भस्मित तम्बू
11 दिसम्बर, 1922 को फादर फेरोन गिनाबहार से तपकरा दौरे पर गये। तपकरा में राजा का कैम्प लगा था। इसलिए वे तपकरा से हटकर नामनी (लठबोरा) गाँव में रूके। उनके वहाँ ठहरने की बात छिपी नहीं, लोग तुरन्त जाने गये। परन्तु हिंसात्मक दमन व उत्पीड़न के भय से ख्रीस्तीय उनके पास जाने का साहस नहीं कर रहे थे। सिर्फ रात को दो-तीन आदमी फादर से मिलने गये।
तपकरा से डिलू जमादार ने अपना आतंक मचा रखा था। उसके पास पाँच फुट लम्बी लाठी थी, जिससे वह लोगों को मारता था। क्षेत्र में दहशत का माहौल था। लोगों के यहाँ से मुर्गा, सूअर, बकरा, साग-सब्जी आदि फोकट में लिया जा रहा था। यह सोचकर कि उनका वहाँ रहना अच्छा के बदले खराब हो सकता है, इसलिए फादर फेरोन वहाँ से लुलकीडीह (गंगपुर) जाने का निश्चय किया। परन्तु उनका सामान ले जाने के लिए भरिया नहीं मिला। अन्ततः वे अपना सामान और तम्बू वहीं छोड़कर अपने “साहसी” नामक घोड़े पर सवार होकर लुलकीडीह जाने के लिए निकले। बावरची उनके पीछे हो लिया। सबेरे 8.30 बजे का समय था। सरहद पर सिंगीबहार के गनिस और मुचान नामक दो पहलवानों ने उनको रोक लिया। वे अन्य चार लोगों के साथ सीमा पर पहरा दे रहे थे। उन्होनें उनको न सीमा पार करने दिया और न नामनी होकर गिनाबहार लौटने। फादर फेरोन ने उन पहरेदारों को बतलाया कि किसी यूरोपीय को सीमा पार करने का पूरा अधिकार है। उन्होंने जवाब दिया कि राजा के आदेश के बिना कोई सीमा पार नहीं कर सकता है। फादर ने उन दोनों पहरेदारों के नाम लिये और उनसे उन्होंने दस्तखत करने को कहा कि उन्होंने राजा के नाम पर उन्हें गिरफ्तार किया। उसके बाद वे तुरन्त दर्जनों संतारियों से घेर लिये गये। सबके हाथों में लाठियाँ थी। सही मायने में वे पक्के लठैत लग रहे थे। इस प्रकार फादर फेरोन को कैम्प के निर्णय के लिए वहीं रूकना पड़ा। कैम्प जाने के लिए गनिस ने उनसे एक चिट्ठा माँगा। राजा, युवराज और पुलिस सभी शिकार करने में मस्त थे। तपकरा में सिर्फ एक मुंशी भर रह गया था। लौटकर पुलिस ने फादर फेरोन को बतलाया कि दारोगा के शिकार से लौटने तक उनको रूकना पड़ेगा। फादर ने नामनी वापस जाकर कुछ खा लेने की अनुमति माँगी। परन्तु उन्होंने उनको टस से मस तक होने नहीं दिया। तत्पश्चात् बड़ी मुश्किल से उनको लुलकीडीह गंगपुर रियासत जाने दिया गया। जब फादर उतियेल नदी पार कर रहे थे तब पहरेदारों में से एक ने दौड़ता हुआ आकर फादर को बतलाया कि गनिस ने उन दोनों को दो-दो लाठी मारने का आदेश दिया है। परन्तु पहरेदार भला आदमी निकला। जैसी ही फादर फेरोन नदी पार कर किनारे से आगे बढ़ रहे थे, उसने दो लाठी उनके साहसी घोड़े को मारा। शायद गनिस को यह दिखलाने के लिए कि उनके उसके आदेशानुसार फादर को दो लाठी मारा।
फादर फेरोन का तम्बू और अन्य सामान नामनी में छूट गया। बाद में उनकों ले जाने के लिए आदमी भेजे गये, परन्तु देने से साफ इनकार किया गया।
फादर फेरोन के तम्बू को उन बदमाशों द्वारा 31 जनवरी व 1 फरवरी की रात को नामनी से साजबहार लिया गया और वहीं 3-4 फरवरी की रात को गाँव के ही तीजू ठेकेदार के आदेश पर जला दिया गया।
पल्ली की स्थापना
26 जनवरी, 1923 को फादर पौल फेरोन, ये.सं. गिनाबहार को अलविदा कह कर अपने नये इलाके अर्थात् तपकरा का जिम्मा लिया और प्रथम पल्ली-पुरोहित बनकर स्थायी रूप् से रहने लगे।
14 окт 2024