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काव्य 24 || 48 दिवसीय भक्तामर शिविर ( 25 August 2024 ) आष्टा || मुनि श्री विनंदसागर जी  

VINAND PRAVAH
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काव्य 24
त्वामव्ययं विभु-मचिन्त्य-मसंख्य-माद्य-
ब्रह्माण - मीश्वर - मनंत - मनंगकेतुम् ।
योगीश्वरं विदितयोग - मनेक - मेकं -
ज्ञानस्वरूप - ममलं प्रवदन्ति सन्तः || 24 ||
फल :- बुद्धि-वृद्धि प्रदायक
अन्वयार्थ :- सन्तः = सन्त/सज्जन पुरुष, त्वाम् = आपको, अव्ययम् = अक्षय, विभुम् = ज्ञान रूप से व्यापक, अचिन्त्यम् = चिन्तन में नहीं आने वाले, असंख्यम् = असंख्य गुणों से युक्त, आद्यम् = प्रथम्, ब्रह्माणम् ईश्वर = ब्रह्मा/ईश्वर, अनन्तम् = अनन्त, अनङ्गकेतुम् = काम विनाशक (कामरूपी बाण को नष्ट करने वाले) योगीश्वरम् = योगियों के ईश्वर, विदित-योगम् = योग के ज्ञायक, अनेकम् = गुण पर्याय के अपेक्षा के अनेक रूप, एकम् = जीव द्रव्य की अपेक्षा एक रूप, ज्ञानस्वरूपम् = केवल ज्ञान स्वरूप, अमलं = कर्म मल से रहित/निर्मल, प्रवदन्ति = कहते हैं।
भावार्थ :- हे जिनेश्वर! सज्जन लोग आपको, अव्यय, विभु, अचिन्त्य, आदि, ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक, ज्ञानस्वरूप, और निर्मल कहते हैं।
जाप :- ॐ ह्रीं अर्ह णमो दिद्वि विसाणं।
(ऐसे ऋषि जो दृष्टि से ही विष को नाश कर देते हैं, उन्हें मेरा प्रणाम होवे)
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19 сен 2024

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