हिमालय धरोहर चेनल की इस कड़ी के माध्यम से हम आपको एक रहस्य सेे अवगत करवायेंगे कि कैसे महा तपस्वी ऋषि दुर्वासा के मंदिर में एक पथा अर्थात डेढ़ किलो चावल, दूध, गुड़ की बनी खीर से हजारों लोगों का पेट भरता है। लेकिन पहले परिचित आपको बताएंगे कि ऋषि दुर्वासा यहां कैसे आए और पूजित हुए ।
वेदों में महा तपस्वी ऋषि दुर्वासा का उल्लेख आता है। भगवान शंकर के रुद्र अवतार महा मुनि दुर्वासा ब्रह्मा के मानसपुत्र ऋषि अत्रि और विश्व की सबसे बड़ी साध्वी पतिव्रता माता अनुसूया के पुत्र हैं। वेदों में वर्णन आता है कि ऋषि अत्रि और माता अनुसूया ने पुत्र प्राप्ति हेतु रिक्षकुल नामक पर्वत पर घोर तपस्या की थी। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर, विष्णु और ब्रह्मा ने उन्हें अपने अपने अंश से एक एक पुत्र प्राप्त करने का वर प्रदान किया। वरदान के प्रभाव से ब्रह्मा जी के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय और शंकर के प्रभाव से मुनि श्रेष्ठ दुर्वासा का जन्म हुआ। क्योंकि दुर्वासा भगवान शंकर के रौद्र रुप से प्रकट हुए थे इसलिए वे अन्याय होने पर क्रोधित भी होते थे।
वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला की गडसा घाटी के पालगी नामक गांव में दुर्वासा ऋषि देव रूप में पूजित हैं।
इस गांव में ऋषि दुर्वासा कैसे स्थापित हुए इस के बारे में देवता की भारथा में उल्लेख आता है कि किसी समय ये उत्तर प्रदेश के भोजपुर नामक स्थान से घूमते हुए गड़सा घाटी में आए। ये अपने साथ मोहा नामक पुरोहित को भी साथ लाए।कुछ समय गड़सा में माहुन के पेड़ के नीचे विश्राम करने बैठे। इसी उपलक्ष्य में इस स्थान पर हर वर्ष बीस जेठ को तीन दिन तक गाहरा मेला मनाया जाता है।
इस स्थान से ऋषि रुआड घराठ आए। वहां जल स्त्रोत प्रस्फुटित किया। इसके बाद धारा पहुंचे। मोहा को वहीं बसाकर स्वयं पालगी पहुंचे। यह स्थान देवदार के वृक्षों के मध्य प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण था।ऋषि को यह स्थान पसंद आया और उन्होंने यहीं तपस्या करनी आरंभ कर दी।
यह भी माना जाता है कि इसी स्थान पर की गई घोर तपस्या ही ऋषि की सबसे सफल तपस्या मानी जाती है। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार इससे पहले इस स्थान जमदग्नि ऋषि भी तपस्या कर चुके थे। वे इस स्थान को दुर्वासा को सौंप कर पाशी में खड़ानग्चा नामक स्थान पर चले गए।
कलयुग में ऋषि दुर्वासा उसी स्थान पर पिंडी रुप में प्रकट हुए, जहां उन्होंने तपस्या की थी और समाधीलीन हुए थे। यह पिंडी गर्भगृह में विद्यमान है।
पालगी में ऋषि का पहाड़ी शैली में बना एक मंजिला मंदिर है। मंदिर के पूर्व की तरफ कुछ दूरी पर देवता का भंड़ार है, जहां देवता का रथ रखा जाता है। भंड़ार के साथ ही तीन मंज़िल का पुराना घर है, जो माता सती अनुसूया को समर्पित है। स्थान देवता कुफरू भी पास में ही स्थापित है। यह दुर्वासा ऋषि का सहायक है। जो हर समय ऋषि के साथ रहता है। इसका भी छोटा सा मंदिर है। यहां भी ऋषि ने जल स्रोत निकाला था। इसके अतिरिक्त ठारह पेड़े, जराल, आदि देवता भी मंदिर परिसर में विद्यमान हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समस्त हिमाचल में किसी देवता के दिवंगत चेलों के बरसेले इसी मंदिर परिसर में रखे हुए हैं।
अब हम आपको उस रहस्य से अवगत करवाएंगे कि दुर्वासा ऋषि के मंदिर में प्रतिदिन खीर क्यों बनती है और वहां उपस्थित सभी भक्तों को खीर पूरी कैसे होती हैं।
कहते हैं जिस मोहा नाम के पुरोहित को ऋषि अपने साथ लाए थे, ऋषि ने उसे अपनी पूजा करने का आदेश दिया। पुरोहित धारा गांव में रहता था। जो पाल्गी से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। उसे पूजा के लिए भोर होने से पहले स्नान करके पालगी आना होता था। रास्ता चढ़ाई वाला था। मार्ग में जंगली जानवरों का खतरा बना रहता था। दुर्वासा ऋषि का आदेश मिलने पर पुरोहित ने ऋषि से कहा, ऋषि महराज भोर होने से पूर्व अंधेरे में जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे। उनसे कैसे बच पाऊंगा। तब ऋषि ने उसे विश्वास दिलाते हुए कहा कि गांव के पीछे में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। फिर हम दोनों साथ चलेंगे। हालंकि तुम मुझे देख नहीं पाओगे। पुजारी ने ऋषि से फिर पूछा, पूजा करने के बाद मुझे भूख लगेगी। उसका क्या समाधान होगा।
तब ऋषि ने कहा कि तुम पूजा से पूर्व चूल्हे पर पतीली में खीर चढ़ा देना। उसमें एक पथा अर्थात डेढ़ किलो चावल, दूध और गुड़ डाल लेना और चूल्हे में लकड़ी जला लेना। उसके बाद स्वयं पूजा करने लग जाना। जब तक तुम पूजा से निपट लोगे तब तक खीर पक चुकी होगी। फिर खीर को मुझे चढ़ाकर वहां उपस्थित सभी भक्तों को खिला देना। अंत में खुद खा लेना और जो खीर वाले बर्तन को धोएगा, उसे खिला देना।
तब से दुर्वासा ऋषि के पालगी स्थित इस मंदिर में चाहे बारिश हो, बर्फ हो, बारहों महिने नियमित पूजा होती है और एक पथा चावल, दूध, घी और गुड़ से खीर बनती है। जिसे ऋषि को भोग लगाने के बाद वहां उपस्थित सभी भक्तों को प्रसाद के रुप में बांटा जाता है।
इस खीर का सबसे बडा चमत्कार यह है कि उपस्थित श्रद्धालु चाहे चार छः हों या दो तीन हजार सब को पूरी होती है और अंत में पुजारी तथा
बर्तन साफ करने वाले को भी बचती है।
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15 окт 2024