परमात्मा के विषय में जानकारी प्राप्त कर रहे जिज्ञासु के मन में यह कौतुहल भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि इस सर्व-शक्तिमान अर्थात परमात्मा में तथा साधारण जीव में आपस में कैसा सम्बन्ध है.
मुंडकोउपनिषद में ऋषि अंगिरा जी अपने शिष्य शौनक जी को परमात्मा और साधारण जीव के परस्पर सम्बन्ध के बारे में उठी इस जिज्ञासा को एक बहुत सुन्दर उदाहरण देकर बताते हैं कि -
दो सुन्दर पक्षी जो कि परस्पर सम्बंधित हैं, एक ही तरह के नाम वाले हैं, एक वृक्ष पर बैठे हैं.
इन दोनों में से एक पक्षी वृक्ष में लगे तरह-तरह के स्वाद वाले फलों को खा रहा है और दूसरा पक्षी न खाता हुआ केवल देख रहा है.
परमात्मा अपने विराट रूप में इस सृष्टि रुपी वृक्ष अर्थात इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विराजमान है.
इसी प्रकार जीवात्मा अपने भौतिक शरीर को धारण करके इस सृष्टि में विचरण कर रहा है. ये दोनों पक्षी नितांत भिन्न प्रकार के नहीं हैं अपितु इनमें सदा से सम्बन्ध रहा है.
श्रीमदभगवदगीता में श्री कृष्ण जी द्वारा भी इसी भाव को प्रकट किया गया है - ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः. - श्रीमदभगवदगीता (15/7) अर्थात इस लोक में जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है.
अपने वास्तविक रूप में जीवात्मा भी परमात्मा की तरह ही निराकार है.
जैसे परमात्मा निराकार रूप में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त किये हुए है, उसी प्रकार जीवात्मा भौतिक शरीर को व्याप्त किए रहता है,
क्योंकि दोनों ही अपनी-अपनी जगह ब्रह्माण्ड और पिंड को पूर्ण कर रहे हैं.
ऋषि अंगिरा जी ने स्पष्ट करते हुए आगे बताया है कि वृक्ष पर बैठे दोनों पक्षियों में से एक वृक्ष के तरह-तरह के स्वाद वाले फलों को खा रहा है
और खाने में इतना मग्न है कि उसकी दृष्टि पास बैठे दूसरे पक्षी की तरफ जाती ही नहीं है. और दूसरा पक्षी केवल देख रहा है.
फल को खाकर तरह-तरह के स्वाद लेने वाला पक्षी वास्तव में जीवात्मा है, जो सृष्टि में विचरण करते हुए तरह-तरह के विषयों का भोग करता है,
और विषयों के भोग में इतना मग्न होता हुआ यह विचार नहीं करता कि इन विषयों को, इस सृष्टि को बनाने वाला भी कोई है,जो सृष्टि न रहने पर भी रहेगा, जो सदा साथ रहेगा, जो वास्तविक सखा है.
इस तरह विषयोपभोग करता हुआ जीवात्मा सुख-दुःख के रूप में मीठे-कडुवे स्वाद भी प्राप्त करता है.
जो खा नहीं रहा केवल देख रहा है वह परमात्मा है.
इस प्रकार जहाँ एक विषयों का भोक्ता है, वहीँ दूसरा अर्थात परमात्मा केवल दृष्टा है तथा अपने आप में पूर्ण और आनंदमय है.
यह स्वयं सृष्टि का कर्ता है और इससे ऊपर है, इसकी रचना करके इसमें होने वाली क्रियाओं को देख रहा है और इस प्रकार हर क्रिया का यही साक्षी है.
इस प्रकार समझ में आ रहा है कि जीवात्मा परमात्मा का ही सनातन अंश है और जीव भाव समाप्त होते ही केवल परमात्मा ही परमात्मा है. ‘यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे’.
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6 сен 2024