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भगवद् गीता 🪷 अध्याय-1 श्लोक-33🙏 Gita sadhak-sanjivani chapter-1.33 

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व्याख्या' येषामर्थे का‌ङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च'- हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुखके लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदिके लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें- इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।
'त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च' पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणोंकी और धनकी
आशाको छोड़कर युद्ध करनेके लिये हमारे सामने इस रणभूमिमें खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणोंका मोह है और न धनकी तृष्णा है; हम मर बेशक जायें, पर युद्धसे नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, तो फिर हमें राज्य किसके लिये चाहिये ? सुख किसके लिये चाहिये ? धन किसके लिये चाहिये ? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें?
'प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च'का तात्पर्य है कि वे प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा इस इच्छाको छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उनमें प्राणोंकी और धनकी इच्छा होती, तो वे मरनेके लिये युद्धमें क्यों खड़े होते ? अतः यहाँ प्राण और धनका त्याग करनेका तात्पर्य उनकी आशाका त्याग करनेमें ही है।

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7 сен 2024

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