Channel- Sunil Batta Films
Documentary on Marsia (Urdu Poetry) - Marsiya- e - Syed Ale Raza
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Runak Pal, Kuldeep Shukla,
Synopsis of the film-
इंसाने दीन, अज़्मते इंसां है दोस्तो
खुदा करे कि मुवद्दत समझ में आ जाए
आफाक़ियत नवाज़ है दर्से ग़मे हुसैन
खि़दमते खलक शरीअत है शराफत के लिए
खुदा है एक खुदा ला इलाहा इल्लल्लाह
कलमए हक़ की तहरीर दिले फितरत में
मर्सिये का यह बंद शोहरऐ आफाक़ शायर और मर्सिया गो आले रज़ा का है। इन अशयार से उनकी शायराना अज़्मत और वक़ार का अंदाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है। जदीद मर्सिया गो शोरा में यूं तो बहुत से नाम शामिल हैं मगर जो मक़ामे ख़ास आले रज़ा को हासिल है वह मक़ाम किसी दूसरे को हासिल नहीं है। उन्होंने इस बंद में जिस तरह से इंसाने दीन को अज़्मते इंसान बताया है उससे इन की फिक्री सोच की बुलंदी का पता चलता है।
आले रज़ा का इस्मे मुबारक सैय्यद आले रज़ा और उनके वालिद बुजुर्गवार का नाम मुहम्मद रज़ा साहब था। जून 1895 ईस्वी में क़स्बा नयोतनी ज़िला उन्नाव में पैदा हुए। आपकी ग़ज़लों का मजमूआ ‘‘नवाए रज़ा’’ 1929 में छपा। पहला मर्सिया सन 1938 ईस्वी में लिखा था। उसके बाद कई मर्सिये और लिखे। आले रज़ा आरजू के शागिर्द हैं। मर्सिया ख़्वानी खुद करते थे। जोश मलीहाबादी के साथ उन्हें भी जदीद मर्सिया गोई का मूजिद ख़्याल किया जाता है।
1938 ईस्वी में उर्दू के नामवर ग़ज़ल गो सैय्यद आले रज़ा ने मर्सिये के पुरान क़ालिब में बाज़ नई कड़ियां लगा कर अपना वह मशहूर मर्सिया पेश किया जिस की यह बैत ज़बान ज़द हो गयी-
कितना पानी है जो बे वक़्त बरस जाता है
और कभी क़ाफिला प्यासों का तरस जाता है
1967 ईस्वी में लाहौर की एक मजलिस में उन्होंने एक नातमाम मर्सिये के चंद शेर सुनाए थे और शायद आले रज़ा का यह मर्सिया ‘अज़्मते इंसान’ उस दौर का बेहतरीन मर्सिया है। उस मर्सिये में जिन्दगी के आला मक़ासिद की तकमील के लिए ग़म से राबता रखने और वज़ा आदमियत बरक़रार रखने के लिए दर्द मंदी के जुसूल को लाज़िम करार दिया है लेकिन तनज़ीमे ख़्यालात का यह अमल ख़तीबाना ज़्यादा है और शायराना कम।
फिर भी शेरी अमल के ऐतेबार से इस मर्सिये को ‘मरासिये रज़ा’ के नाम से मर्सियो पर मुशतमिल एक किताब में शामिल किया गया है जो हाल ही में कराची से शाए हुई है। इस मर्सियों में तमाम वह मर्सिये शामिल हैं जो मौसूफ़ ने पाकिस्तान जाकर कहे। ‘अज़्मते इंसान’ के बाद यह नया मजमूआ मर्सिये के अस्रे नव में उन के मिसाली मर्सियों में है, हज़रत अली अकबर के हाले शहादत का यह मर्सिया वाक़ेआती पस मंज़र और शदीद-अलम अंग्रेजी के सबब एक ऐसी नादिर तख़लीक़ है जिसका इज़हार किये बग़ैर जदीद मर्सिये की रिवायत ना मुकम्मल रहती है। उस मर्सिये के कुछ बंद पेश हैं-
नूरे नज़र के चहेरे में, उस वक़्त वह दमक
मुरझाते फूल की वह कड़ी धूप में महेक
उभरी इस एहतेमाम से दिल में दबी कसक
अकबर के साथ चले आये, दूर तक
रूख़े जानिब मनाये शहादत किए हुए
हुस्ने ख़ुलूक फिदिया अकबर लिए हुए
बरपा क़दम क़दम यह क़यामत की कशमकश
इफराते शौक़ो मैहशरे रुख़सत की कशमकश
तूफाने दर्दो नाज़ शुजाअत की कशमकश
सब्र आज़मा वह फर्ज़ो मुहब्बत की कशमकश
अकबर सुकूने क़ल्ब हैं, यह हैं दिले हुसैन
इस्लाम पर निसार, वह है मंज़िले हुसैन
पहला मर्सिया ‘कलमए हक़ की है तहरीर दिले फ़ितरत में’ सन 1939 ईस्वी में कहा गया। उसका तीसरा बंद तहज़ीबे नफ्स, बुलंद अख़लाक़ी और ख़ुद्दारी का बेहतरीन नमूना है। बच्चों की निस्बत से उसकी अहमियत मज़ीद बढ़ जाती है-
भोले भाले वह कई रोज़ के प्यासे बच्चे
तरसी आँखों में गढ़े, हातों में ख़ाली कूज़े
पास बहते हुए दरया की सदायें सुन के
देखना चाहने वालों की तरफ हसरत से
कहती थी बढ़ती हुई तिशनाधानी मांगो
शरम कहती थी, कि मर जाओ, न पानी मांगो।
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5 сен 2019