भूले मन समुझ के लाद लदनिया । टेक थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टुट जाये गरदनिया . भूखा हो तो भोजन पाले, आगे हाट न बनिया . स प्यास हो तो पानी पी ले, आगे देश निपनिया । कहत कबीर सुनो भाई साधो, काल के हाथ बिकनिया || 🙏🙏
मुझे बहुत ही भाता है ये भजन👌👌बहुत बहुत धन्यवाद इसे यूँ गाकर शेयर करने के लिए🙏सत्र में तो सुनते हैं परंतु अलग से भी सुनने को मिल जाये तो उसकी बात ही अलग है। अब हम जब भी मन चाहता है सुन सकते हैं🙏
Bahut sunder Bhajan Kabir sahab har cheez me ek hi prayash hame hosh Dena sayad yahi prem hai jo niskamta se bata jata hai 🙏🙏 jabki ager line laga ke mile to sayad mera kabhi no hi na aye ❤❤
भूले मन..! समझ के लाग लदनियां..! थोड़ा लाद.. अधिक मत लादे.. टूट जाये तेरी गर्दनिया..!.. भूले मन… भूखा हो तो भोजन पा ले.. आगे हात न बनिया…! भूले मन…. प्यासा हो तो पानी पि ले.. आगे घात न पनियां… भूले मन…. कहे कबीर सुनो भाई साधो.. काल के हाथ कमनियां… भूले मन… निम्नलिखित पंक्ति का अर्थ : उत्तर: क्या है मन की भूख, क्या है मन की प्यास? क्या पाकर मन वास्तव में शांत हो जाएगा? जो कुछ तुम सोचते हो पाने की, उसको तो पा पा कर भी आज तक मन शांत हुआ नहीं. जो भी हमने पाने की सोची, वो या तो कोई वस्तु है, या व्यक्ति, या वस्तु और व्यक्ति से ही आया हुआ कुछ. जब भी हमने पाने की सोची, तो यही सोचा कि अभी नहीं है वो पास, और कभी और मिल जाए काश हमें. आगे कभी. जब भी हमने पाने की सोची, तो अतीत के नामों और धारणाओं के मध्य बैठ कर ही सोचा. पुरानी सोच. पीछे की. आगे पाछे के खेल में ही गड़बड़ हो जाती है. ‘आगे घात न पनियां…’ हमारा सारा पाने का खेल हमें समय - आगे पाछे - के हाथ का खिलौना बना देता है - ‘काल के हाथ कमनियां…’ कबीर कह रहे हैं, काल के गुलाम न रहो. अपने कालातीत स्वभाव को पहचानो. क्या है जो काल से मुक्त है? समर्पण का क्षण काल से मुक्त है. जिस भी क्षण मन आगे पाछे की फ़िक्र छोड़ तत्काल में ही रम जाए, वही क्षण काल से मुक्त हो गया. आगे पीछे की बात सिर्फ बोझ है- ‘थोड़ा लाद..अधिक मत लादे..टूट जाये तेरी गर्दनिया..’ जो पाना है, जिससे वास्तव में भूख प्यास मिटेगी, वो अभी, और मात्र अभी ही, उपलब्ध है: भूखा हो तो भोजन पा ले..आगे हात न बनिया…प्यासा हो तो पानी पि ले..आगे घात न पनियां… जिस क्षण मन झुक गया, अकड़ छोड़ नमन में, दूरी छोड़ प्रेम में, आगा-पीछा ख़त्म हो जाता है. वक़्त रहता है, घड़ी की सुइयां चलती हैं, पर वक़्त का महत्त्व बहुत नहीं रह जाता. भूत-भविष्य खेल मात्र रह जाते हैं. लीला. वापस आ जा, भूले मन…!
भूले मन समझ समझ कर लाद लदनिया। प्यासा हो तो पानी पी लें आगे हाट न बनिया। इसका अर्थ हम अहम, आत्मा और प्रकृति के context में देखते हैं। अहम का स्वभाव है जुड़ना। किसी ऐसे से मत जुड़ जाना जो तुम्हे बांध ले। विस्थापित अहम अगर गलत जगह बंध गया, तो आत्मा तक पहुंचना उसके लिए मुश्किल हो जाएगा। ऐसे चीज़ से जुड़ना ही नही जो बोझ बन जाए जीवन का। पहले अपने सामर्थ्य का संज्ञान आता है, फिर कोई भी ज़िम्मेदारी। अपने से बड़ी चीज़ (प्रकृति के क्षेत्र में) को जीवन में लेकर आओगे तो गुलाम बन जाओगे उस चीज़ के। मुक्ति तुम्हारा धर्म है, इससे वंचित रहना पड़ेगा फिर। प्यासा हो तो पानी पी ले... पानी पीना है, पेट्रोल नहीं। विषयों को पानी देना, मतलब उनको जान समझ कर उनकी व्यर्थता को देख लेना। और अपने आप को साधना देकर के आत्मा में स्थित करना, यही पानी है बाकी सब पेट्रोल है। आगे हाट न बनिया.. विषयों के राह पर पानी नहीं है। पानी चाहिए.. तो अहम को सही जगह में स्थापित करो। पानी के लिए bisleri की bottle क्यों ढूंढ रहे हो? अब इसके लिए हाट भी चाहिए फिर बनिया भी चाहिए और उपर से २०₹ भी चाहिए। कौन इतनी झंझट उठाए..। और bisleri की bottle भी कितनी चलती है? क्या वह तुम्हारी प्यास भी बुझा पाएगी? दूसरी तरफ अथाह महासागर है प्रेम से भरा और इसमें खारा पानी नहीं है। सुनो मजे की बात इसमें मीठा पानी भी नहीं है। तो क्या है फिर इसमें में? अमृत। कृष्णामृत। अब देख लो महासागर चाहिए, या हट पकड़ कर बैठना है bisleri की bottle का। चुनाव तुम्हारा है। बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5.21।। ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।