आध्यात्मिक जगत का एक सिद्धांत है कि व्यक्ति को प्रभु इच्छा में रहना चाहिए. इसको सुख और आनंद पाने का एकमात्र साधन माना जाता है.
हम ध्यान से सोचें कि सृष्टि की सारी रचना में जो कुछ भी हो रहा है , कहीं भी हमारी इच्छा का दखल नहीं है. इस प्रकार समझ में आ रहा है कि सभी कुछ किसी परमसत्ता के अधीन हो रहा है.
जब हमारे हाथ में कुछ नहीं है तो फिर व्यर्थ में सुख-दुःख की घटनाओं से परेशान क्यों होना है. सुख तो इसी में है कि हम हर स्थिति को ज्यों का त्यों स्वीकार करें.
प्रश्न है कि प्रभु की इच्छा की समझ कैसे आये ?
साधारण रूप में समझाया जाता है कि जो कुछ भी हो रहा है सब प्रभु की इच्छा से हो रहा है जैसे -सुख-दुःख, मान -अपमान, हानि -लाभ. हमें हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए.
वास्तविकता में सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि -लाभ का सम्बन्ध प्रकृति से है. कर्मों के फल के आधार पर प्रकृति में उथल-पुथल होते रहते हैं.
सृष्टि का व्यावहारिक पक्ष इसका जिम्मेदार है. इसे प्रभु इच्छा नहीं माना जा सकता है. परमात्मा ने जैसा जिसे बनाया है, वह अपने स्वयं के स्वभाव के कारण काम कर रहा है.
आग का स्वभाव जलन और पानी का स्वभाव ठंडा है. इन बातों में किसी की इच्छा शक्ति का कोई दखल नहीं है.
अब प्रश्न उठता है कि प्रभु की इच्छा क्या है ? इसको समझने का प्रयास करते हैं.
प्रभु-परमात्मा तो निराकार है, स्वयं बोलकर तो कुछ समझाता नहीं. फिर इसकी इच्छा में रहना, जिसे सुख और आनंद का साधन माना जाता है, कैसे संभव हो?
पूर्ण आध्यात्मिक विभूतियों ने समझाया कि परमात्मा ने यह सारी सृष्टि पांच तत्वों से बनाई है और इस सारी सृष्टि का एक मूल स्वरुप मनुष्य शरीर को बनाया है.
अगर हम इस शरीर रचना और इसकी गतविधियों पर गौर करें तो हमें प्रभु की इच्छा की सही समझ आसानी से आ सकती है.
इसके प्राकृतिक क्रिया-कलापों के अनुसार जीवन व्यतीत करना ईश्वरीय इच्छा में जीना है. अब मानव शरीर को ध्यान से देखते हैं.
शरीर में सिर सबसे ऊपर है और पाँव सबसे नीचे हैं. हाथ की उँगलियों की संख्या 10 है तो नाक केवल 1 है.
देखने वाली बात यह है कि शरीर के हर अंग का अपना स्वतंत्र रूप और कार्य है. रूप और कार्य में भिन्नता होते हुए भी कभी भी एक दूसरे से टकराव नहीं है.
सभी अंग एक-दूसरे के सहयोगी हैं. एक-दूसरे की रक्षा करते हैं, काम आते हैं. उंगलियाँ बहु संख्यक होते हुए भी अल्प संख्या वाली नाक को तोड़ती नहीं, उसकी रक्षा करती है.
सबसे ऊंचा रहने वाला सिर सबसे नीचे रहने वाले पाँव की अवहेलना नहीं करता, बल्कि उसकी रक्षा का भार उठता है.
पांव में काँटा चुभ जाए तो सिर सिहर उठता है. पूरा शरीर उस पीड़ा का अनुभव करता है और उसे दूर करने का प्रयास करता है.
कभी ऐसा नहीं होता कि हाथ उस समय पाँव को छूने से इंकार कर दे या आँख उस स्थल को बताने में लापरवाही बरते कि काँटा कहाँ चुभा है?
शरीर के विभिन्न अंगों की साझेदारी अनेकता में एकता की प्रतीक है. सभी अंग एक, दूसरे पर आधारित हैं और सहयोगी हैं.
यह सब कुछ उन्हें किसी ने सिखाया नहीं, इस स्वाभाविक प्रेरणा की स्वयमेव उत्पत्ति होती है. यही प्रभु इच्छा का साकार नमूना है.
यह सारी सृष्टि एक इकाई है. जड़-चेतन जगत का जर्रा-जर्रा एक दूसरे पर आधारित है. इनमें तालमेल बनाये रखना, एक-दूसरे के सहयोगी और सहायक होना, यही प्रभु परमात्मा की इच्छा मानी जा सकती है.
पूरा ब्रह्माण्ड एक इकाई है . इसमें कहीं कोई उथल-पुथल हो तो सारा मानव समाज प्रभावित होता है.
इसलिए शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों की तरह इनमें सकारात्मक ईश्वरीय इच्छा है. इसी इच्छा का पालन करना प्रभु इच्छा में जीना है.
#motivation
#hindi
#suvichar
#subscribetomychannel
#nirankari
#nirankarivichar
#nirankarisong
#viral
#aacharya
#satsang
#spirituality
#spiritualawakening
#spiritual
#success
#universalbrotherhood
#ishwar
#prabhu
#god
#ichchha
#prarthana
#bhakti
#bhajan
6 сен 2024