आदरणीय द्विवेदी जी आप प्रत्येक वी डी ओ में अपनी मधुर वाणी से अत्यंत सहज और सरल भाव में नियत कर्म को परिभाषित किया है और आनंदित करता है। आपके वी डी ओ को मैं अपने जनों को भेजते रहता हूं, जो सुनने और पढ़ने हेतु उद्यत रहते हैं। सादर।
👌👌 सप्रेम नमस्कार ! उक्त वार्ता को मैने भी ध्यानपूर्वक सुना! वार्ता मुझे अत्यंत सरल,सुगम,बोधगम्य एवं वर्ण्य विषय को सुस्पष्ट करती हुई लगी! जन्म,जरा,मृत्यु की प्रास्थितियों के साथ-साथ सत्, रज और तम् के गुणों का बोध हो जाने के बाद ही मानव की सोच में उन सबसे परे जाने की स्थितियां बनती हैं और तब मानव स्थितिप्रज्ञ बनकर अपने नियत्कर्मों को संपूर्ण करने की अर्हता प्राप्त कर लेता है! इस प्रकार वह अपने जीवन को यशपूर्वक आनंदमय बना सकता है और तभी उसका जीवन सार्थक भी होगा! शुभ कामनाएं 🙏🙏
आप की वाणी और कथ्य दोनों ही सदैव से उत्तम रहे हैं। आप परिश्रम से वीडियो तैयार करते हैं।असहमति का तो सवाल ही नहीं होता। रही बात टिप्पणी करने की तो दर्शन ,आध्यात्म के विषय में मेरी जानकारी अत्यल्प है और यही कारण है कि मैं टिप्पणी नहीं कर पाता लेकिन सुनता जरूर हूँ।लोगों की प्रतिक्रियाएं खासतौर से त्रिपाठी सर जी की ,भी पढ़ता हूँ।❤❤
सर्वं खल्विदं ब्रह्म के माध्यम से औपनिषदिक आचार्यों ने कवीर जैसे लोगों के विचारों का जड़ से समापन कर दिया है। श्रीकृष्ण के विचारों का भी इसी तरह से समापन हो जाता है।
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण विमुच्यते। पूर्णात् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ब्रह्म प्याज कटने से अपना पूर्व रूप खो नहीं देता है, वह जगत में है और उसके परे भी है। शास्त्रों में ब्रह्म को अंतर्यामी तथा परात्पर दोनों ही कहा गया है। जय मां गुरु ❤
@@nagchannel5298 प्याज अपने छिलकों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। छिलकों का संघटित रूप ही प्याज है।इसी तरह से यह दृश्यमान और अस्तित्ववान् जगत् परमात्मा ही है।
👌👌 अत्यंत सराहनीय वार्ता!...श्रद्धावान होने से हमारे सामर्थ्य,ज्ञान और निरंतर सीखकर आगे बढ़ने की मानवीय प्रवृत्ति बाधित होती है! यह हममें नीर-क्षीर के अंतर को समझने का विवेक भी बाधित करती है ! जबकि हमारे जिज्ञासु होने या अपनी शंकाओं का समाधान पाने हेतु निरंतर संसयी बने रहने से हमारी ज्ञान-पिपासा निरंतर प्रशस्त बनी रहती है और हम नित नए ज्ञान-विज्ञान से परिचित भी होते जाते हैं! अतः ज्ञान-पिपासा की शांति हेतु संसय करने की प्रवृत्ति ही हमारी अभीष्ट होनी चाहिए ! यहां हमें संसय और अविश्वास के बीच के अंतर को भी समझना होगा क्योंकि ज्ञानार्जन के लिए अविश्वास करना भी हमारा ध्येय कदापि नही हो सकता! इसलिए श्रद्धावान होने की अपेक्षा हमारा संसयी बने रहना ही अभीष्ट होना चाहिए ताकि हमारा नीर-क्षीर का विवेक भी बना रह सके किंतु उस ज्ञानदाता के प्रति अविश्वासी बनने से अच्छा है कि हम उसे छोड़कर ज्ञानार्जन हेतु आगे बढ़ लें! शुभ कामनाएं 🙏🙏
वार्ता में कई शंकाओं का निवारण करने हेतु साधुवाद! जैसे प्रमुखत: यह स्पष्ट हुआ कि जीवात्मा निरंतर गतिशील है और वह कभी भी,किंचित भी विराम नहीं लेती ! सृष्टि की इस व्यवस्था से कोई भी मुक्त नही है! ऐसी स्थिति में, तथाकथित "मोक्ष" की अवधारणा ही असत्य पर टिकी हुई है! दूसरा , गीता में श्री कृष्ण के द्वारा कहे गए "सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज!....." के बारे में फैलाई गई यह भ्रांति भी दूर हो गई कि श्री कृष्ण का आशय अर्जुन को शरणागत होने पर उसे "मोक्ष* देने का था क्योंकि शरणागत अर्जुन तभी होगा जब वह निष्काम-भाव से युक्त होकर शरण में आए और उसका ये निष्काम होना संभव ही नहीं है ...मोक्ष की कामना तो उसके साथ लगी ही है! ऐसी स्थिति में, उसे "मोक्ष - भाव" से विरत होकर अपने लिए नियत किए गए कर्मों का संपादन करना होगा , बिना यह सोचे कि उसके कर्म संपादन का उसे सुफल मिलेगा या कुफल? हां,यह अवश्य है की उसका प्रत्येक कर्म परिणामी भी है और उसके करने का पुरस्कार और न करने का दंड भी मिलना है! यह उसे इह लोक और परलोक दोनों में मिल सकता है! अर्जुन श्रीकृष्ण के उपदेशों का मूलार्थ समझकर स्वनिर्णय से स्वकर्म युद्धार्थ उद्यत भी हो गया और श्रीकृष्ण ने उसके साराथित्व को स्वीकार कर लिया! ज्ञानपूर्ण वार्ता एवं शंकाओं के निवारणार्थ आपको साधुवाद! शुभ कामनाएं 🙏🙏
हर काम परिणामी होता है।नियत कर्म फल रहित होना चाहिए।आवा-गमन का बना रहना ही अ-मोक्ष है।35:04 मिनट की स्पष्ट व्याख्या एवं सर्व समाज को जागरूक करने हेतु आभार,हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाओं सहित आदरणीय सपरिवार को सादर अभिवादन ।इन्जी0डी0एन0प्रसाद विश्वकर्मा,मिर्जापुर।
मैंने आपके पूरे आख्यान को ध्यान से सुना। अवगत ही हो कि हम पहले भी कभी कभी इस विषय पर बात करते रहे हैं। मैं भी मानता हूँ कि जीवन की निरन्तरता चलती ही रहती है और आवागमन की प्रकरिया अनवरत है और मोक्ष काकोई प्रमाण अभी तक मेरे संज्ञान में नहीं है। नियत कर्म की साधना ही जीवन का लक्ष है जहाँ तक गीता को मैं समझ सका हूँ।
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भगवान श्रीकृष्ण के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर आप द्वारा प्रस्तुत विचार बहुत ही ज्ञानवर्धक है। आपके विचार सुनने के उपरांत श्रीमदभागवत गीता पढ़ने की आवश्यकता ही नही पढनी चाहिए, वशतेँ केन्द्रित होकर सुने। जन्माष्टमी की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएं।