रामचरितमानस मूलपाठ: अरण्यकाण्ड प्लेलिस्ट
• रामचरितमानस मूलपाठ:अरण...
सो. कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥
आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें ॥
उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥
जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता ॥
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा ॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा ॥
दो. देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला ॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥
दो. सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥
जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥
दो. निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन ॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥
दो. तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं ॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं ॥
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः ॥
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥
जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा ॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा ॥
दो. अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥
शेष यहाँ:
sanskritdocume...
30 сен 2024