Vishnusahasranaama Artha va Vivaran: Part 49 - Shloka or Verse No 58 by Aparna Shankar Abhyankar | विष्णुसहस्रनाम अर्थ व विवरण: भाग ४९- श्लोक क्र. ५८, प्रस्तुति - सौ. अपर्णा शंकर अभ्यंकर
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥
॥ ५८॥
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद |
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ||
॥ भ.गी.११-३१॥
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा: |
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ||
॥ भ.गी.११-२०॥
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा |
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ||
॥ भ.गी.११-८॥
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||
॥ भ.गी.१८-६१॥
माझे असतेपण लोपो । नामरुप हारपो ।
मज झणे वासिपो । भूतजात ॥
15 окт 2024