थारो कुम्भ नहीं रे झलकाये, हेली
Sung by Shabnam Virmani & Shreeparna Mitra
With gratitude to the deeply knowledgeable folk singer of Kabir - Prahlad Tipaniyaji from Luniyakhedi, Madhya Pradesh - from whom I first heard this unusual song by Meerabai.
Words of the song:
थारो कुम्भ नहीं रे झलकाये, हेली
हेयड़ी (लई) रे चलो पनिहारी रो
कायन का थारा कुम्भ बनया, कई को जड़ियो है जड़ाये
रतन जतन कर राखजो बाई, अंत ठणीको खाय है
काची मिटटी का थारा कुम्भ बनिया, कुम्भ पर जड़ियो है जड़ाव
लई रे बेवड़ो सागर चलिया, सागर औघट घाट है
दई रे झकोलो बाई ने नीर भरियो, सिर पर लियो है उठाये
रमक झमक कर चाल जो, पवना सो झोंका खाय है
सिर का घड़ा थारा, सिर फूटिया, ठीकरी हुई है हज़ार
रोती फिरेगा कोई मारगिया, लाख चौरासी का माय है
सासरिया में थारे दुःख घणो, पीयर का लागा है भाग
बाई हो मीरा को गिरधर मिल्या, सत्त अमरापुर पाये
With gratitude to Rajubhai Patel for organising this concert for the residents of Morbi, Gujarat on 28 April, 2024.
(www.shabnamvirmani.com)
5 июн 2024