तृतीय सत्र, 'लैंगिक समानता का भारतीय दृष्टिकोण' विषय प्रस्तुत करते हुए सुश्री निवेदिता भिड़े ने समझाया कि शाश्वत जीवन मूल्यों के साथ युगानुकूल जीवन व्यवस्था का निर्माण होना चाहिए। जीवन व्यवस्था के कुछ आयाम शाश्वत है जो सदियों से चले आ रहे हैं और कुछ आया ऐतिहासिक, है समयानुकूल समाज व्यवस्था के आधार पर रखे गए हैं उन्हें समय के साथ बदलना भी आवश्यक है। उन्होंने हाथ और ह्रदय का उदाहरण देकर समझाया कि हमारी जीवन व्यवस्था कर्तव्य आधारित है कैलकुलेशन पर आधारित नहीं। हाथ रात को आराम करता है तब ह्रदय यह नहीं कहता कि हाथ काम नहीं कर रहा तो मैं भी आराम कर लेता हूं। वह अपना कर्तव्य निरंतर सुचारू रूप से करता रहता है। यही बात हमारे जीवन में कार्य क्षेत्र में भी लागू होती है। हमें हम जहां है उस समय, स्थान अनुसार अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए वही हमारा स्व धर्म है। भारतीय समाज जीवन में समानता की चर्चा नहीं है किन्तु विविधता का महत्व है। हमें किसी से प्रतिस्पर्धा में नहीं उतरना अपितु अनुस्पर्धा के साथ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहना है। समानता होनी चाहिए आत्मा विकास के लिए। Variety is a plan of nature who are we to challenge it ? स्त्री जब स्त्री के दायित्वों का निर्वहन सुचारू रूप से करती है और वैसे ही पुरुष अपने दायित्वों का निर्वहन सुचारू रूप से करता है, एक दूसरे के पूरक बनकर, एक दूसरे के साथ व्यवहार में आत्मीय भाव रखकर, तो समानता स्वत: ही प्रस्थापित हो जाती है। समानता अगर होनी चाहिए तो आत्म, राष्ट्र, समाज परिवार के विकास में योगदान देने के विषय में होनी चाहिए। आज राष्ट्रबोध कम हुआ है क्योंकि स्त्रियों की सहभागिता इस विषय में कम हुई है। स्वतंत्रता मिलनी चाहिए शाश्वत परंपरा को निभाने की और समयानुकूल परंपरा में बदलाव की। स्वतंत्रता मिलनी चाहिए समष्टि के विकास में योगदान देने के लिए स्व का मार्ग चयन करने की। आज के समाज में जब भी कोई प्रश्न उठता है समाज के किसी एक भाग से तो हम उसे Generalized Issue बना देते हैं जो प्रश्न स्कूल जाने का गलत तरीका है। निवेदिता जी ने बड़ी ही सुंदरता के साथ समझाया कि अलग-अलग समय की, जगह की, व्यवस्थाओं की समस्या एक कैसे हो सकती है ? इसीलिए उसका हल ढूंढने के प्रयत्नों में परिवार, समाज आदि भी सम्मिलित होते हैं। व्यक्तिगत रूप से, पारिवारिक रूप से, सामाजिक और राष्ट्रीय रूप से एक ही पहचान कैसे संभव है ? समानता कैसे संभव है ?आज भारतीय सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास में जुटे हुए तत्व, अर्थ और काम के विषय में विकृत समज, हर एक प्रॉब्लम के लिए शॉर्टकट ढूंढना... जैसी अनेक वजहों से स्त्री/पुरुष के मन में लैंगिक समानता को लेकर प्रश्न उठते हैं, उनके स्वमान का हनन होता है, सामान्य होना असामान्य है ऐसा समझाया जाता है, उन्हें शोषित किया जाता है। निवेदिता जी ने अपना वक्तव्य समाप्त करते वक्त बताया कि इन सभी बातों से ऊपर उठकर हमें समाज की मुख्य चार व्यवस्थाएं शिक्षा, राज्य, समाज और अर्थव्यवस्था के विषय में चिंतन करना चाहिए दो प्रमुख व्यवस्थाएं शिक्षा जो निश्रेयस मार्ग बतलाती है और अर्थव्यवस्था जो अभ्युदय का मार्ग बतलाती है, जिनके आधार पर ही संस्कृति और समृद्धि कायम है उन्हें स्वतंत्र करना चाहिए शाश्वत मूल्य के साथ और युवा अनुकूल बदलाव के साथ।
इस एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में पूरे भारत से ८०० से ज्यादा लोग सम्मिलित हुए थे। संगोष्ठी के विचार से लेकर सुचारू रूप से संपन्न होने तक का श्रेय भारतीय विचार मंच के सभी सदस्य, उनके प्रयत्न को जाता है।
24 сен 2022